Friday, 28 February 2014

अतीक उल्लाह

मैं जो ठहरा ठहरता चला जाऊँगा
या ज़मीं में उतरता चला जाऊँगा

जिस जगह नूर की बारिशें थम गईं
वो जगह तुझ से भरता चला जाऊँगा

दरमियाँ में अगर मौत आ भी गई
उस के सर से गुज़रता चला जाऊँगा

तेरे क़दमों के आसार जिस जा मिले
इस हथेली पे धरता चला जाऊँगा

दूर होता चला जाऊँगा दूर तक
पास ही से उभरता चला जाऊँगा

रौशनी रखता जाएगा तू हाथ पर 
और मैं तहरीर करता चला जाऊँगा


2.
कौन गुज़रा था मेहराब-ए-जाँ से अभी ख़ामुशी शोर भरता हुआ 
धुँद में कोई शय जूँ दमकती हुई इक बदन सा बदन से उभरता हुआ 

सर्फ़ करती हुई जैसे साअत कोई लम्हा कोई फ़रामोश करता हुआ
फिर न जाने कहाँ टूट कर जा गिरा एक साया सरों से गुज़रता हुआ

एक उम्र-ए-गुरेज़ाँ की मोहलत बहुत फैलता ही गया मैं उफ़ुक़-ता-उफ़ुक़
मेरे बातिन को छूती हुई वो निगह और मैं चारों तरफ़ पाँव धरता हुआ 

ये जो उड़ती हुई साअत-ए-ख़्वाब कितनी महसूस है कितनी नायाब है
फूल पल्कों से चुनती हुई रौशनी और मैं ख़ुशबुएँ तहरीर करता हुआ 

मेरे बस में थे सारे ज़मान-ओ-मकाँ लेक मैं देखता रह गया ईन ओ आँ
चल दिया ले कि चुटकी में कोई ज़मीं आसमाँ आसमाँ गर्द करता हुआ 

अपनी मौजूदगी से था मैं बे-ख़बर देखता क्या हूँ ऐसे में यक-दम इधर 
क़त्अ करती हुई शब के पहलू में इक आदमी टूटता और बिखरता हुआ


3.
क्या तुम ने कभी ज़िंदगी करते हुए देखा
मैं ने तो इसे बार-हा मरते हुए देखा

पानी था मगर अपने ही दरिया से जुदा था
चढ़ते हुए देखा न उतरते हुए देखा 

तुम ने तो फ़क़त उस की रिवायत ही सुनी है 
हम ने वो ज़माना भी गुज़रते हुए देखा 

याद उस के वो गुलनार सरापे नहीं आते
इस ज़ख़्म से उसे ज़ख़्म को भरते हुए देखा 

इक धुँद कि रानों में पिघलती हुई पाई 
इक ख़्वाब कि ज़र्रे में उतरते हुए देखा 

बारीक सी इक दरज़ थी ओर उस से गुज़र था 
फिर देखने वालों ने गुज़रते हुए देखा