Friday, 3 January 2014

ज़मील मुरस्सापुरी

1.
नए मौसम को क्या होने लगा है
कि मिट्टी में लहू बोने लगा है

कोई क़ीमत नहीं थी जिस की यारो
अब उस का मोल भी होने लगा है

बहुत मुश्किल है अब उस का जगाना
वो आँखें खोल कर सोने लगा है

जहाँ होता नहीं था कुछ भी कल तक
वहाँ भी कुछ न कुछ होने लगा है

हवा का क़द कोई किस तरह नापे
जिसे देखो वही कोने लगा है

अभी तो पाँव में काँटे चुभे हैं
अभी से हौसला खोने लगा है

नई तहज़ीब दम तोड़ेगी इक दिन
नहीं होना था जो होने लगा है

2 .
अगर ये ज़िद है कि मुझ से दुआ सलाम न हो
तो ऐसी राह से गुज़रो जो राह-ए-आम न हो

सुना तो है कि मोहब्बत पे लोग मरते हैं
ख़ुदा करे कि मोहब्बत तुम्हारा नाम न हो


बहार-ए-आरिज़-ए-गुल्गूँ तुझे ख़ुदा की क़सम
वो सुब्ह मेरे लिए भी कि जिस की शाम न हो

मिरे सुकूत को नफ़रत से देखने वाले
यही सुकूत कहीं बाइस-ए-कलाम न हो

इलाही ख़ैर कि उन का सलाम आया है
यही सलाम कहीं आख़िरी सलाम न हो

‘जमील’ उन से तआरूफ़ तो हो गया लेकिन
अब उन क बाद किसी से दुआ सलाम न हो


3.
मंज़िलों तक मंज़िलों की आरज़ू रह जाएगी
कारवाँ थक जाएँ फिर भी जुस्तजू रह जाएगी

ऐ दिल-ए-नादाँ तुझे भी चाहिए पास-ए-अदब
वो जो रूठे तो अधूरी गुफ़्तुगू रह जाएगी

ग़ैर के आने न आने से भला क्या फ़ाएदा
तुम तो आ जाओ तो मेरी आबरू रह जाएगी

इस भरी महफ़िल में तेरी एक मैं ही तिश्ना-लब
साक़िया क्या ख़्वाहिश-ए-जाम-ओ-सुबू रह जाएगी

हम अगर महरूम होंगे अहल-ए-फ़न की दाद से
शेर कहने की किसे फिर आरज़ू रह जाएगी

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