Friday, 13 June 2014

---आचार्य सारथि रूमी

1.
भले ही मैं तुझे मय कह चुका हूँ,
हक़ीक़त में तो मैं तेरा नशा हूँ!

लकीरों में तेरी कितना लिखा हूँ,
सितारों से मैं ख़ुद भी पूछता हूँ!

भले तुझको मयस्सर हो चुका हूँ,
मैं अपनी ज़ात में भी लापता हूँ!

तुझे भी, और फ़लक भी छू रहा हूँ,
कभी सूरज, कभी मैं चाँद-सा हूँ!

ये धरती है मेरे पहलू की मिट्टी,
मैं इसमें ख़्वाहिशों को बो चुका हूँ!

बरसते बादलों में अश्क मेरे,
मैं ख़ुद सारी रुतों का आइना हूँ!

कोई नग़मा मुझे ख़ुद में समेटे,
मैं रंग-ओ-बू मिलाना चाहता हूँ!

तू मेरी बुस‍अतें महफ़ूज़ कर ले,
मैं अब आलम-सा ख़ुद में फैलता हूँ!

मेरे नज़दीक अब कोई नहीं है,
बुलंदी को ख़ुदी की, पा चुका हूँ!

कहाँ रूमी गई आवाज़ मेरी,
जिसे आवाज़ मैं देता रहा हूँ!

Wednesday, 11 June 2014

--- जय शंकर प्रसाद

2.
कोताहन क्यों मचा हुआ है? घोर यह
महाकाल का भैरव गर्जन हो रहा
अथवा तोपों के मिस से हुंकार यह
करता हुआ पयोधि प्रलय का आ रहा
नही; महा संघर्षण से होकर व्यथित
हरिचन्दन दावानल फैलाने लगा
दुर्गमन्दिर के सब ध्वंस बचे हुए
धूल उड़ाने लगे, पड़ी जो आँख में-
उनके, जिनके वे थे खुदवाये गये
जिससे देख न सकते वे कर्त्तव्य-पथ

दुर्दिन-जल-धारा न सम्हाल सकी अहो
बालू की दीवार मुगल-साम्राज्य की 
आर्य-शिल्प के साथ गिरा वह भी, जिसे
अपने कर से खोदा आलमगीर ने
मुगल-महीपति के अत्याचारी, अबल
कर कँपने-से लगे। अहो यह क्या हुआ
मुगल-अदृष्टाकाश-मध्य अति तेज से
धूमकेतु से सूर्यमल्ल समुदित हुए
सिंहद्वार है खुला दीन के मुख सदृश
प्रतिहिंसा पूरित वीरो की मण्डली
व्याप्त हो रही है दिल्ली के दुर्ग में
मुगल-महीपों के आवासादिक बहुत
टूट चुके है, आम खास के अंश भी
किन्तु न कोई सैनिक भी सन्मुख हुआ

रोषानल से ज्वलित नेत्र भी लाल है
मुख-मण्डल भीषण प्रतिहिंसा पूर्ण है
सूर्यमल्ल मध्याह्न सूर्य सम चण्ड हो
मोतीमस्जिद के प्रांगण में है खड़े
भीम गदा है कर में, मन में वेग है
उठा, क्रुद्ध हो सबल हाथ लेकर गदा
छज्जे पर जा पड़ा, काँपकर रह गई
मर्मर की दीवाल, अलग टुकड़ा हुआ
किन्तु न फिर वह चला चण्डकर नाश को
क्यों जी, यह कैसा निष्क्रिय प्रतिरोध है

सूर्यमल्ल रुक गये, हृदय रुक गया
भीषणता रुक कर करुणा-सी हो गई।
कहा- 'नष्ट कर देंगे यदि विद्वेष से -
इसको, तो फिर एक वस्तु संसार की
सुन्दरता से पूर्ण सदा के लिए ही
हो जायेगी लुप्त। बड़ा आश्चर्य है
आज काम वह किया शिल्प-सौन्दर्य ने
जिसे न करती कभी सहस्त्रो वक्तृता

अति सर्वत्र अहो वर्जित है, सत्य ही
कहीं वीरता बनती इससें क्रूरता
धर्म जन्य प्रतिहिंसा ने क्या-क्या नही
किया, विशेष अनिष्ट शिल्प साहित्य का
लुप्त हो गये कितने ही विज्ञान के 
साधन, सुन्दर ग्रन्थ जलाये वे गये
तोड़े गये, अतीत-कथा-मकरन्द को
रहे छिपाये शिल्प-कुसुम जो शिला हो
हे भारत के ध्वंस शिल्प! स्मृति से भरे
कितनी वर्णा शीतातप तुम सह चुके 
तुमको देख नितान्त करुण इस वेश मे
कौन कहेगा कब किसने निर्मित किया
शिल्पपूर्ण पत्थर कब मिट्टी हो गये
किस मिट्टी की ईटे है बिखरी हुई



1.
ले चल वहाँ भुलावा देकर
मेरे नाविक ! धीरे-धीरे ।
जिस निर्जन में सागर लहरी,
अम्बर के कानों में गहरी,
निश्छल प्रेम-कथा कहती हो-
तज कोलाहल की अवनी रे ।

जहाँ साँझ-सी जीवन-छाया,
ढीली अपनी कोमल काया,
नील नयन से ढुलकाती हो-
ताराओं की पाँति घनी रे ।

जिस गम्भीर मधुर छाया में,
विश्व चित्र-पट चल माया में,
विभुता विभु-सी पड़े दिखाई-
दुख-सुख बाली सत्य बनी रे ।


श्रम-विश्राम क्षितिज-वेला से
जहाँ सृजन करते मेला से,
अमर जागरण उषा नयन से-
बिखराती हो ज्योति घनी रे !

Tuesday, 10 June 2014

श्याम नारायण पाण्डेय

चढ़ चेतक पर तलवार उठा रखता था भूतल–पानी को। 
राणा प्रताप सिर काट–काट करता था सफल जवानी को।।
कलकल बहती थी रण–गंगा अरि–दल को डूब नहाने को।
तलवार वीर की नाव बनी चटपट उस पार लगाने को।।
वैरी–दल को ललकार गिरी¸ वह नागिन–सी फुफकार गिरी।
था शोर मौत से बचो¸बचो¸ तलवार गिरी¸ तलवार गिरी।। 
पैदल से हय–दल गज–दल में छिप–छप करती वह विकल गई! 
क्षण कहां गई कुछ¸ पता न फिर¸ देखो चमचम वह निकल गई।।
क्षण इधर गई¸ क्षण उधर गई¸ क्षण चढ़ी बाढ़–सी उतर गई।
था प्रलय¸ चमकती जिधर गई¸ क्षण शोर हो गया किधर गई।
क्या अजब विषैली नागिन थी¸ जिसके डसने में लहर नहीं।
उतरी तन से मिट गये वीर¸ फैला शरीर में जहर नहीं।।
थी छुरी कहीं¸ तलवार कहीं¸ वह बरछी–असि खरधार कहीं।
वह आग कहीं अंगार कहीं¸ बिजली थी कहीं कटार कहीं।।
लहराती थी सिर काट–काट¸ बल खाती थी भू पाट–पाट।
बिखराती अवयव बाट–बाट तनती थी लोहू चाट–चाट।!
सेना–नायक राणा के भी रण देख–देखकर चाह भरे।
मेवाड़–सिपाही लड़ते थे दूने–तिगुने उत्साह भरे।।
क्षण मार दिया कर कोड़े से रण किया उतर कर घोड़े से।
राणा रण–कौशल दिखा दिया चढ़ गया उतर कर घोड़े से।।
क्षण भीषण हलचल मचा–मचा राणा–कर की तलवार बढ़ी।
था शोर रक्त पीने को यह रण–चण्डी जीभ पसार बढ़ी।।
वह हाथी–दल पर टूट पड़ा¸ मानो उस पर पवि छूट पड़ा।
कट गई वेग से भू¸ ऐसा शोणित का नाला फूट पड़ा।।
जो साहस कर बढ़ता उसको केवल कटाक्ष से टोक दिया।
जो वीर बना नभ–बीच फेंक¸ बरछे पर उसको रोक दिया।।
क्षण उछल गया अरि घोड़े पर¸ क्षण लड़ा सो गया घोड़े पर।
वैरी–दल से लड़ते–लड़ते क्षण खड़ा हो गया घोड़े पर।।
क्षण भर में गिरते रूण्डों से मदमस्त गजों के झुण्डों से¸
घोड़ों से विकल वितुण्डों से¸ पट गई भूमि नर–मुण्डों से।।
ऐसा रण राणा करता था पर उसको था संतोष नहीं
क्षण–क्षण आगे बढ़ता था वह पर कम होता था रोष नहीं।।
कहता था लड़ता मान कहां मैं कर लूं रक्त–स्नान कहां।
जिस पर तय विजय हमारी है वह मुगलों का अभिमान कहां।।
भाला कहता था मान कहां¸ घोड़ा कहता था मान कहां?
राणा की लोहित आंखों से रव निकल रहा था मान कहां।।
लड़ता अकबर सुल्तान कहां¸ वह कुल–कलंक है मान कहां?
राणा कहता था बार–बार मैं करूं शत्रु–बलिदान कहां?।।
तब तक प्रताप ने देख लिया, लड़ रहा मान था हाथी पर।
अकबर का चंचल साभिमान उड़ता निशान था हाथी पर।।
वह विजय–मन्त्र था पढ़ा रहा¸ अपने दल को था बढ़ा रहा।
वह भीषण समर–भवानी को पग–पग पर बलि था चढ़ा रहा।।
फिर रक्त देह का उबल उठा जल उठा क्रोध की ज्वाला से।
घोड़े से कहा बढ़ो आगे¸ बढ़ चलो कहा निज भाला से।।
हय–नस नस में बिजली दौड़ी¸ राणा का घोड़ा लहर उठा।
शत–शत बिजली की आग लिए, वह प्रलय–मेघ–सा घहर उठा।।
क्षय अमिट रोग¸ वह राजरोग¸ ज्वर सन्निपात लकवा था वह।
था शोर बचो घोड़ा–रण से कहता हय कौन¸ हवा था वह।।
तनकर भाला भी बोल उठा, राणा मुझको विश्राम न दे।
बैरी का मुझसे हृदय गोभ, तू मुझे तनिक आराम न दे।।
खाकर अरि–मस्तक जीने दे¸ बैरी–उर–माला सीने दे।
मुझको शोणित की प्यास लगी बढ़ने दे¸ शोणित पीने दे।।
मुरदों का ढेर लगा दूं मैं¸ अरि–सिंहासन थहरा दूं मैं।
राणा मुझको आज्ञा दे दे शोणित सागर लहरा दूं मैं।।
रंचक राणा ने देर न की¸ घोड़ा बढ़ आया हाथी पर।
वैरी–दल का सिर काट–काट राणा चढ़ आया हाथी पर।।
गिरि की चोटी पर चढ़कर किरणों निहारती लाशें¸
जिनमें कुछ तो मुरदे थे¸ कुछ की चलती थी सांसें।।
वे देख–देख कर उनको मुरझाती जाती पल–पल।
होता था स्वर्णिम नभ पर पक्षी–क्रन्दन का कल–कल।।
मुख छिपा लिया सूरज ने जब रोक न सका रूलाई।
सावन की अन्धी रजनी वारिद–मिस रोती आई।। --- श्याम नारायण पाण्डेय