Friday, 13 June 2014

---आचार्य सारथि रूमी

1.
भले ही मैं तुझे मय कह चुका हूँ,
हक़ीक़त में तो मैं तेरा नशा हूँ!

लकीरों में तेरी कितना लिखा हूँ,
सितारों से मैं ख़ुद भी पूछता हूँ!

भले तुझको मयस्सर हो चुका हूँ,
मैं अपनी ज़ात में भी लापता हूँ!

तुझे भी, और फ़लक भी छू रहा हूँ,
कभी सूरज, कभी मैं चाँद-सा हूँ!

ये धरती है मेरे पहलू की मिट्टी,
मैं इसमें ख़्वाहिशों को बो चुका हूँ!

बरसते बादलों में अश्क मेरे,
मैं ख़ुद सारी रुतों का आइना हूँ!

कोई नग़मा मुझे ख़ुद में समेटे,
मैं रंग-ओ-बू मिलाना चाहता हूँ!

तू मेरी बुस‍अतें महफ़ूज़ कर ले,
मैं अब आलम-सा ख़ुद में फैलता हूँ!

मेरे नज़दीक अब कोई नहीं है,
बुलंदी को ख़ुदी की, पा चुका हूँ!

कहाँ रूमी गई आवाज़ मेरी,
जिसे आवाज़ मैं देता रहा हूँ!

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