Friday, 29 August 2014

मुजफ्फर वारसी

1.
ज़ख़्म-ए-तन्हाई में ख़ुश्बू-ए-हिना किसकी थी
साया दीवार पे मेरा था सदा किसकी थी

उस्की रफ़्तार से लिपटी रही मेरी आँखें
उस ने मुड़ कर भी न देखा कि वफ़ा किसकी थी

वक़्त की तरह दबे पाँव ये कौन आया है
मैंने अँधेरा जिसे समझा वो क़बा किसकी थी

आँसुओं से ही सही भर गया दामन मेरा
हाथ तो मैं ने उठाये थे दुआ किसकी थी

मेरी आहों की ज़बां कोई समझता कैसे
ज़िन्दगी इतनी दुखी मेरे सिवा किसकी थी

आग से दोस्ती उस की थी जला घर मेरा
दी गई किस को सज़ा और ख़ता किसकी थी

मैं ने बीनाइयाँ बो कर भी अंधेरे काटे
किके बस में थी ज़मीं अब्र-ओ-हवा किस की थी

छोड़ दी किस लिये तू ने "मुज़फ़्फ़र" दुनिया
जुस्तजू सी तुझे हर वक़्त बता किसकी थी

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