Friday, 13 December 2013

अख्तर नाज्मी(1)

1.
सिलसिला ज़ख्म ज़ख्म जारी है 
ये ज़मी दूर तक हमारी है 


मैं बहुत कम किसी से मिलता हूँ
जिससे यारी है उससे यारी है 

हम जिसे जी रहे हैं वो लम्हा
हर गुज़िश्ता सदी पे भारी है

मैं तो अब उससे दूर हूँ शायद 
जिस इमारत पे संगबारी है 

नाव काग़ज़ की छोड़ दी मैंने
अब समन्दर की ज़िम्मेदारी है 

फ़लसफ़ा है हयात का मुश्किल 
वैसे मज़मून इख्तियारी है 

रेत के घर तो बह गए नज़मी 
बारिशों का खुलूस जारी है

Thursday, 12 December 2013

राज इलाहाबादी (1)

1.
लज़्ज़त-ए-ग़म बढ़ा दीजिये,
आप यूँ मुस्कुरा दीजिये

कीमत-ए-दिल बता दीजिये, 
ख़ाक़ ले कर उड़ा दीजिये

आप अंधेरे में कब तक रहें, 
फिर कोई घर जला दीजिये

चाँद कब तक गहन में रहे, 
आप ज़ुल्फ़ें हटा दीजिये

मेरा दामन बहुत साफ़ है, 
कोई तोहमत लगा दीजिये

एक समन्दर ने आवाज़ दी, 
मुझको पानी पिला दीजिये

अकबर इलाहाबादी

1.
हंगामा है क्यों बरपा थोड़ी सी जो पी ली है
डाका तो नहीं डाला चोरी तो नहीं की है

उस मय से नहीं मतलब दिल जिससे हो बेगाना
मकसूद है उस मय से दिल ही में जो खिंचती है

सूरज में लगे धब्बा फ़ितरत के करिश्मे हैं
बुत हमको कहें काफ़िर अल्लाह की मरज़ी है

ना तजुर्बाकारी से वाइज़ की ये बातें है
इस रंग को क्या जाने पूछो तो कभी पी है

हर ज़र्रा चमकता है अनवर-ए-इलाही से
हर सांस ये कहती है हम है तो खुदा भी है..

हबीब सोज (3)

1.
हमारे ख़्वाब सब ताबीर से बाहर निकल आए
वो अपने आप कल तस्वीर से बाहर निकल आए


ये अहल-ए-होश तू घर से कभी बाहर न निकले
मगर दीवाने हर जंज़ीर से बाहर निकल आए

कोई आवाज़ दे कर देख ले मुड़ कर ने देखेंगे
मोहब्बत तेरे इक इक तीर से बाहर निकल आए

दर ओ दीवार भी घर के बहुत मायूस थे हम से
सो हम भी रात इस जागीर से बाहर निकल आए

बड़ी मुश्किल ज़मीनों का गुलाबी रंग भरना था
बहुत जल्दी बयाज़-ए-मीर से बाहर निकल आए

2.
इतनी सी बात थी जो समन्दर को खल गई ।
का़ग़ज़ की नाव कैसे भँवर से निकल गई ।

पहले ये पीलापन तो नहीं था गुलाब में,
लगता है अबके गमले की मिट्टी बदल गई ।

फिर पूरे तीस दिन की रियासत मिली उसे,
फिर मेरी बात अगले महीने पे टल गई ।

इतना बचा हूँ जितना तेरे *हाफ़ज़े में हूँ,
वर्ना मेरी कहानी मेरे साथ जल गई ।

दिल ने मुझे मुआफ़ अभी तक नहीं किया,
दुनिया की राय दूसरे दिन ही बदल गई ।
  • हाफ़ज़े-यादाश्त
3.
ख़ुद को इतना जो हवा-दार समझ रक्खा है
क्या हमें रेत की दीवार समझ रक्खा है!!

हम ने किरदार को कपड़ों की तरह पहना है
तुम ने कपड़ों ही को किरदार समझ रक्खा है!!

मेरी संजीदा तबीअत पे भी शक है सब को
बाज़ लोगों ने तो बीमार समझ रक्खा है!!

उस को ख़ुद-दारी का क्या पाठ पढ़ाया जाए
भीक को जिस ने पुरूस-कार समझ रक्खा है!!

तू किसी दिन कहीं बे-मौत न मारा जाए
तू ने यारों को मदद-गार समझ रक्खा है !!