Friday, 29 August 2014

असअद भोपाली

2.
कुछ भी हो वो अब दिल से जुदा हो नहीं सकते
हम मुजरिम-ए-तौहीन-ए-वफ़ा हो नहीं सकते

ऐ मौज-ए-हवादिस तुझे मालूम नहीं क्या
हम अहल-ए-मोहब्बत हैं फ़ना हो नहीं सकते

इतना तो बता जाओ ख़फ़ा होने से पहले
वो क्या करें जो तुम से ख़फ़ा हो नहीं सकते

इक आप का दर है मेरी दुनिया-ए-अक़ीदत
ये सजदे कहीं और अदा हो नहीं सकते

अहबाब पे दीवाने 'असद' कैसा भरोसा
ये ज़हर भरे घूँट रवा हो नहीं सकते


1,
गिराँ गुज़रने लगा दौर-ए-इंतिज़ार मुझे
ज़रा थपक के सुला दे ख़याल-ए-यार मुझे

न आया ग़म भी मोहब्बत में साज़-गार मुझे
वो ख़ुद तड़प गए देखा जो बे-क़रार मुझे

निगाह-ए-शर्मगीं चुपके से ले उड़ी मुझ को
पुकारता ही रहा कोई बार बार मुझे

निगाह-ए-मस्त ये मेयार-ए-बे-ख़ुदी क्या है
ज़माने वाले समझते हैं होशियार मुझे

बजा है तर्क-ए-तअल्लुक़ का मशवरा लेकिन
न इख़्तियार उन्हें है न इख़्तियार मुझे

बहार और ब-क़ैद-ए-ख़िज़ाँ है नंग मुझे
अगर मिले तो मिले मुस्तक़िल बहार मुझे

मुजफ्फर वारसी

1.
ज़ख़्म-ए-तन्हाई में ख़ुश्बू-ए-हिना किसकी थी
साया दीवार पे मेरा था सदा किसकी थी

उस्की रफ़्तार से लिपटी रही मेरी आँखें
उस ने मुड़ कर भी न देखा कि वफ़ा किसकी थी

वक़्त की तरह दबे पाँव ये कौन आया है
मैंने अँधेरा जिसे समझा वो क़बा किसकी थी

आँसुओं से ही सही भर गया दामन मेरा
हाथ तो मैं ने उठाये थे दुआ किसकी थी

मेरी आहों की ज़बां कोई समझता कैसे
ज़िन्दगी इतनी दुखी मेरे सिवा किसकी थी

आग से दोस्ती उस की थी जला घर मेरा
दी गई किस को सज़ा और ख़ता किसकी थी

मैं ने बीनाइयाँ बो कर भी अंधेरे काटे
किके बस में थी ज़मीं अब्र-ओ-हवा किस की थी

छोड़ दी किस लिये तू ने "मुज़फ़्फ़र" दुनिया
जुस्तजू सी तुझे हर वक़्त बता किसकी थी

Saturday, 23 August 2014

जलालुद्दीन रूमी

मुरली का गीत

मसनवी की पहली किताब की शुरुआत इसी मुरली के गीत से होती है...

सुनो ये मुरली कैसी करती है शिकायत।
हैं दूर जो पी से, उनकी करती है हिकायत(*)॥

काट के लाये मुझे, जिस रोज़ वन से।
सुन रोए मरदोज़न, मेरे सुरके ग़म से॥

खोजता हूँ एक सीना फुरक़त(१) से ज़र्द(२) ज़र्द।
कर दूँ बयान उस पर अपनी प्यास का दर्द॥

कर दिया जिसको वक़्त ने अपनों से दूर।
करे दुआ हर दम यही, वापसी होय मन्ज़ूर॥

मेरी फ़रियाद की तान हर मजलिस(३) में होती है।
बदहाली मे होती है और खुशहाली में होती है॥

बस अपने मन की सुनता समझता हर कोई।
क्या है छिपा मेरे दिल मे, जानता नहीं कोई॥

राज़ मेरा फ़रियादों से मेरी, अलग़ तो नही।
ऑंख से, कान से ये खुलता मगर जो नही॥

तन से जान और जान से तन छिपा नही है।
किसी ने भी मग़र जान को देखा नही है॥

हवा है तान मे मुरली की? नही सब आग है॥
जिसमे नही ये आग, वो तो मुरदाबाद है॥

मुरली के अन्दर आग आशिक की होती है।
आशिक की ही तेज़ी मय में भी होती है॥

हो गई मुरली उसी की यार, पाई जिसमें पीर।
दे दिया उनको सहारा, कर मेरा परदा चीर॥

मुरली सा ज़हर भी दवा भी, किसने देखा है। 
हमदर्द सच्चा मुरली जैसा किसने देखा है॥

खूं से भरी राहो से मुरली आग़ाज़(४) करती है।
रूदाद गाढ़े इश्क की मजनूं की कहती है॥

होश से अन्जान वो सब, जो बेहोश नही है।
इस आवाज़ को जाने वो क्या, जिसे कान नही है॥

दर्द ऐसा मिला जो है हर वक्त मेरे साथ।
वक्त ऐसा मिला, हर लम्हा तपिश के साथ॥

बीते जा रहे ये दिन यूँ ही, कोई बात नही।
तू बने रहना यूँ ही, तुझ सा कोई पाक नही॥

जो मछली थे नही, पानी से सब थक गये।
लाचार थे जो, दिन उनके जैसे थम गये॥

न समझेंगे जो कच्चे हैं, पकना किसको कहते हैं।
नहीं ये राज़ गूदे के, छिलका इसको कहते हैं॥

तो हो आज़ाद ऐ बच्चे, क़ैदों से दरारो की।
रहोगे बन्द कब तक, चॉंदी में दीवारो की॥

सागर को भरोगे गागर मे, कितना आएगा?
उमर मे एक दिन जितना भी न आएगा॥

भरो लोभ का गागर, कभी भर पाओगे नहीं।
खुद को भरता मोतियों से, सीप पाओगे नहीं॥

कर दिया जिसका ग़रेबां इश्क ने हो चाक(५)।
लोभ लालच की बुराई से, हो गया वो पाक॥

अय इश्क तू खुशबाश हो और जिन्दाबाद हो।
हमारी सब बीमारी का बस तुझसे इलाज हो॥

तू है दवा ग़ुमान की और है ग़ुरूर की।
तुझसे ही क़ायम है लौ, खिरद(६) के नूर की॥

ये खाक का तन अर्श(७) तक, जाता है इश्क़ से।
खाक का परबत भी झूमता गाता है इश्क़ से॥

आशिको इस इश्क ने ही जान दी कोहे तूर(८) में।
था तूर मस्ती में, व थी ग़शी(९) मूसा हुज़ूर में॥

लबेसुर्ख के यार से ग़रचे मुझे चूमा जाता। 
मुझसे भी मुरली सा शीरीं(१०) सुर बाहर आता॥

दूर कोई रहता हमज़बानो से जो हो।
बस हो गया गूँगा, सौ ज़बां वाक़िफ़(११) वो हो॥

चूँकि गुल अब है नही वीरां बगीचा हो गया।
बाद गुल के, बन्द गाना बुलबुलों का हो गया॥

माशूक़ ही है सब कुछ, आशिक़ है बस परदा।
माशूक ही बस जी रहा है, आशिक़ तो एक मुरदा॥

ऐसा न हो आशिक तो इश्क का क्या हाल हो।
परिन्दा वो इक जिसके गिर गए सब बाल(१२) हो॥

होश में कैसे रहूँ मैं, बड़ी मुश्किल में हूँ।
यार को देखे बिना, हर घड़ी मुश्किल में हूँ॥

अरमान है इश्क का, इस राज़ को दुनिया से बोले।
मुमकिन हो ये किस तरह, आईना जब सच न खोले॥

सच बोलता आईना तेरा, सोच क्यूँ नही?
चेहरा उसका ज़ंग से, जो साफ है नही॥



(*) हिकायत : कहानी
(१) फ़ुरक़त : विरह
(२) ज़र्द : पीला
(३) मजलिस : सभा
(४) आग़ाज़ : शुरुआत
(५) चाक : विदीर्ण, फटा हुआ
(६) खिरद : अक़ल, बुद्धि
(७) अर्श : आसमान
(८) कोहे तूर : तूर नाम का पर्वत, जिस पर मूसा को खुदाई नूर के दर्शन हुए
(९) ग़शी : बेहोशी
(१०) शीरीं : मीठा
(११) वाक़िफ़ : जानकार
(१२) बाल : पर, डैने 

Tuesday, 12 August 2014

maya anglou

You may write me down in history
With your bitter, twisted lies,
You may tread me in the very dirt
But still, like dust, I'll rise.

Does my sassiness upset you? 
Why are you beset with gloom? 
'Cause I walk like I've got oil wells
Pumping in my living room.

Just like moons and like suns,
With the certainty of tides,
Just like hopes springing high,
Still I'll rise.

Did you want to see me broken? 
Bowed head and lowered eyes? 
Shoulders falling down like teardrops.
Weakened by my soulful cries.

Does my haughtiness offend you? 
Don't you take it awful hard
'Cause I laugh like I've got gold mines
Diggin' in my own back yard.

You may shoot me with your words,
You may cut me with your eyes,
You may kill me with your hatefulness,
But still, like air, I'll rise.

Does my sexiness upset you? 
Does it come as a surprise
That I dance like I've got diamonds
At the meeting of my thighs? 

Out of the huts of history's shame
I rise
Up from a past that's rooted in pain
I rise
I'm a black ocean, leaping and wide,
Welling and swelling I bear in the tide.
Leaving behind nights of terror and fear
I rise
Into a daybreak that's wondrously clear
I rise
Bringing the gifts that my ancestors gave,
I am the dream and the hope of the slave.
I rise
I rise
I rise.

Monday, 11 August 2014

Alfred Lord Tennyson

2.the brook.

I come from haunts of coot and hern, 
I make a sudden sally 
And sparkle out among the fern, 
To bicker down a valley. 

By thirty hills I hurry down, 
Or slip between the ridges, 
By twenty thorpes, a little town, 
And half a hundred bridges.

Till last by Philip's farm I flow
To join the brimming river,
For men may come and men may go,
But I go on for ever.

I chatter over stony ways,
In little sharps and trebles,
I bubble into eddying bays,
I babble on the pebbles.

With many a curve my banks I fret
By many a field and fallow,
And many a fairy foreland set
With willow-weed and mallow.

I chatter, chatter, as I flow
To join the brimming river,
For men may come and men may go,
But I go on for ever.

I wind about, and in and out,
With here a blossom sailing,
And here and there a lusty trout,
And here and there a grayling,

And here and there a foamy flake
Upon me, as I travel
With many a silvery waterbreak
Above the golden gravel,

And draw them all along, and flow
To join the brimming river
For men may come and men may go,
But I go on for ever.

I steal by lawns and grassy plots,
I slide by hazel covers;
I move the sweet forget-me-nots
That grow for happy lovers.

I slip, I slide, I gloom, I glance,
Among my skimming swallows;
I make the netted sunbeam dance
Against my sandy shallows.

I murmur under moon and stars
In brambly wildernesses;
I linger by my shingly bars;
I loiter round my cresses;

And out again I curve and flow
To join the brimming river,
For men may come and men may go,
But I go on for ever. 

1.
All Things will Die

Clearly the blue river chimes in its flowing

Under my eye;
Warmly and broadly the south winds are blowing

Over the sky.
One after another the white clouds are fleeting;
Every heart this May morning in joyance is beating

Full merrily;
Yet all things must die.
The stream will cease to flow;
The wind will cease to blow;
The clouds will cease to fleet;
The heart will cease to beat;
For all things must die.
All things must die.
Spring will come never more.
O, vanity!
Death waits at the door.
See! our friends are all forsaking
The wine and the merrymaking.
We are call’d–we must go.
Laid low, very low,
In the dark we must lie.
The merry glees are still;
The voice of the bird
Shall no more be heard,
Nor the wind on the hill.
O, misery!
Hark! death is calling
While I speak to ye,
The jaw is falling,
The red cheek paling,
The strong limbs failing;
Ice with the warm blood mixing;
The eyeballs fixing.
Nine times goes the passing bell:
Ye merry souls, farewell.
The old earth
Had a birth,
As all men know,
Long ago.
And the old earth must die.
So let the warm winds range,
And the blue wave beat the shore;
For even and morn
Ye will never see
Thro’ eternity.
All things were born.
Ye will come never more,
For all things must die. 

Friday, 13 June 2014

---आचार्य सारथि रूमी

1.
भले ही मैं तुझे मय कह चुका हूँ,
हक़ीक़त में तो मैं तेरा नशा हूँ!

लकीरों में तेरी कितना लिखा हूँ,
सितारों से मैं ख़ुद भी पूछता हूँ!

भले तुझको मयस्सर हो चुका हूँ,
मैं अपनी ज़ात में भी लापता हूँ!

तुझे भी, और फ़लक भी छू रहा हूँ,
कभी सूरज, कभी मैं चाँद-सा हूँ!

ये धरती है मेरे पहलू की मिट्टी,
मैं इसमें ख़्वाहिशों को बो चुका हूँ!

बरसते बादलों में अश्क मेरे,
मैं ख़ुद सारी रुतों का आइना हूँ!

कोई नग़मा मुझे ख़ुद में समेटे,
मैं रंग-ओ-बू मिलाना चाहता हूँ!

तू मेरी बुस‍अतें महफ़ूज़ कर ले,
मैं अब आलम-सा ख़ुद में फैलता हूँ!

मेरे नज़दीक अब कोई नहीं है,
बुलंदी को ख़ुदी की, पा चुका हूँ!

कहाँ रूमी गई आवाज़ मेरी,
जिसे आवाज़ मैं देता रहा हूँ!

Wednesday, 11 June 2014

--- जय शंकर प्रसाद

2.
कोताहन क्यों मचा हुआ है? घोर यह
महाकाल का भैरव गर्जन हो रहा
अथवा तोपों के मिस से हुंकार यह
करता हुआ पयोधि प्रलय का आ रहा
नही; महा संघर्षण से होकर व्यथित
हरिचन्दन दावानल फैलाने लगा
दुर्गमन्दिर के सब ध्वंस बचे हुए
धूल उड़ाने लगे, पड़ी जो आँख में-
उनके, जिनके वे थे खुदवाये गये
जिससे देख न सकते वे कर्त्तव्य-पथ

दुर्दिन-जल-धारा न सम्हाल सकी अहो
बालू की दीवार मुगल-साम्राज्य की 
आर्य-शिल्प के साथ गिरा वह भी, जिसे
अपने कर से खोदा आलमगीर ने
मुगल-महीपति के अत्याचारी, अबल
कर कँपने-से लगे। अहो यह क्या हुआ
मुगल-अदृष्टाकाश-मध्य अति तेज से
धूमकेतु से सूर्यमल्ल समुदित हुए
सिंहद्वार है खुला दीन के मुख सदृश
प्रतिहिंसा पूरित वीरो की मण्डली
व्याप्त हो रही है दिल्ली के दुर्ग में
मुगल-महीपों के आवासादिक बहुत
टूट चुके है, आम खास के अंश भी
किन्तु न कोई सैनिक भी सन्मुख हुआ

रोषानल से ज्वलित नेत्र भी लाल है
मुख-मण्डल भीषण प्रतिहिंसा पूर्ण है
सूर्यमल्ल मध्याह्न सूर्य सम चण्ड हो
मोतीमस्जिद के प्रांगण में है खड़े
भीम गदा है कर में, मन में वेग है
उठा, क्रुद्ध हो सबल हाथ लेकर गदा
छज्जे पर जा पड़ा, काँपकर रह गई
मर्मर की दीवाल, अलग टुकड़ा हुआ
किन्तु न फिर वह चला चण्डकर नाश को
क्यों जी, यह कैसा निष्क्रिय प्रतिरोध है

सूर्यमल्ल रुक गये, हृदय रुक गया
भीषणता रुक कर करुणा-सी हो गई।
कहा- 'नष्ट कर देंगे यदि विद्वेष से -
इसको, तो फिर एक वस्तु संसार की
सुन्दरता से पूर्ण सदा के लिए ही
हो जायेगी लुप्त। बड़ा आश्चर्य है
आज काम वह किया शिल्प-सौन्दर्य ने
जिसे न करती कभी सहस्त्रो वक्तृता

अति सर्वत्र अहो वर्जित है, सत्य ही
कहीं वीरता बनती इससें क्रूरता
धर्म जन्य प्रतिहिंसा ने क्या-क्या नही
किया, विशेष अनिष्ट शिल्प साहित्य का
लुप्त हो गये कितने ही विज्ञान के 
साधन, सुन्दर ग्रन्थ जलाये वे गये
तोड़े गये, अतीत-कथा-मकरन्द को
रहे छिपाये शिल्प-कुसुम जो शिला हो
हे भारत के ध्वंस शिल्प! स्मृति से भरे
कितनी वर्णा शीतातप तुम सह चुके 
तुमको देख नितान्त करुण इस वेश मे
कौन कहेगा कब किसने निर्मित किया
शिल्पपूर्ण पत्थर कब मिट्टी हो गये
किस मिट्टी की ईटे है बिखरी हुई



1.
ले चल वहाँ भुलावा देकर
मेरे नाविक ! धीरे-धीरे ।
जिस निर्जन में सागर लहरी,
अम्बर के कानों में गहरी,
निश्छल प्रेम-कथा कहती हो-
तज कोलाहल की अवनी रे ।

जहाँ साँझ-सी जीवन-छाया,
ढीली अपनी कोमल काया,
नील नयन से ढुलकाती हो-
ताराओं की पाँति घनी रे ।

जिस गम्भीर मधुर छाया में,
विश्व चित्र-पट चल माया में,
विभुता विभु-सी पड़े दिखाई-
दुख-सुख बाली सत्य बनी रे ।


श्रम-विश्राम क्षितिज-वेला से
जहाँ सृजन करते मेला से,
अमर जागरण उषा नयन से-
बिखराती हो ज्योति घनी रे !

Tuesday, 10 June 2014

श्याम नारायण पाण्डेय

चढ़ चेतक पर तलवार उठा रखता था भूतल–पानी को। 
राणा प्रताप सिर काट–काट करता था सफल जवानी को।।
कलकल बहती थी रण–गंगा अरि–दल को डूब नहाने को।
तलवार वीर की नाव बनी चटपट उस पार लगाने को।।
वैरी–दल को ललकार गिरी¸ वह नागिन–सी फुफकार गिरी।
था शोर मौत से बचो¸बचो¸ तलवार गिरी¸ तलवार गिरी।। 
पैदल से हय–दल गज–दल में छिप–छप करती वह विकल गई! 
क्षण कहां गई कुछ¸ पता न फिर¸ देखो चमचम वह निकल गई।।
क्षण इधर गई¸ क्षण उधर गई¸ क्षण चढ़ी बाढ़–सी उतर गई।
था प्रलय¸ चमकती जिधर गई¸ क्षण शोर हो गया किधर गई।
क्या अजब विषैली नागिन थी¸ जिसके डसने में लहर नहीं।
उतरी तन से मिट गये वीर¸ फैला शरीर में जहर नहीं।।
थी छुरी कहीं¸ तलवार कहीं¸ वह बरछी–असि खरधार कहीं।
वह आग कहीं अंगार कहीं¸ बिजली थी कहीं कटार कहीं।।
लहराती थी सिर काट–काट¸ बल खाती थी भू पाट–पाट।
बिखराती अवयव बाट–बाट तनती थी लोहू चाट–चाट।!
सेना–नायक राणा के भी रण देख–देखकर चाह भरे।
मेवाड़–सिपाही लड़ते थे दूने–तिगुने उत्साह भरे।।
क्षण मार दिया कर कोड़े से रण किया उतर कर घोड़े से।
राणा रण–कौशल दिखा दिया चढ़ गया उतर कर घोड़े से।।
क्षण भीषण हलचल मचा–मचा राणा–कर की तलवार बढ़ी।
था शोर रक्त पीने को यह रण–चण्डी जीभ पसार बढ़ी।।
वह हाथी–दल पर टूट पड़ा¸ मानो उस पर पवि छूट पड़ा।
कट गई वेग से भू¸ ऐसा शोणित का नाला फूट पड़ा।।
जो साहस कर बढ़ता उसको केवल कटाक्ष से टोक दिया।
जो वीर बना नभ–बीच फेंक¸ बरछे पर उसको रोक दिया।।
क्षण उछल गया अरि घोड़े पर¸ क्षण लड़ा सो गया घोड़े पर।
वैरी–दल से लड़ते–लड़ते क्षण खड़ा हो गया घोड़े पर।।
क्षण भर में गिरते रूण्डों से मदमस्त गजों के झुण्डों से¸
घोड़ों से विकल वितुण्डों से¸ पट गई भूमि नर–मुण्डों से।।
ऐसा रण राणा करता था पर उसको था संतोष नहीं
क्षण–क्षण आगे बढ़ता था वह पर कम होता था रोष नहीं।।
कहता था लड़ता मान कहां मैं कर लूं रक्त–स्नान कहां।
जिस पर तय विजय हमारी है वह मुगलों का अभिमान कहां।।
भाला कहता था मान कहां¸ घोड़ा कहता था मान कहां?
राणा की लोहित आंखों से रव निकल रहा था मान कहां।।
लड़ता अकबर सुल्तान कहां¸ वह कुल–कलंक है मान कहां?
राणा कहता था बार–बार मैं करूं शत्रु–बलिदान कहां?।।
तब तक प्रताप ने देख लिया, लड़ रहा मान था हाथी पर।
अकबर का चंचल साभिमान उड़ता निशान था हाथी पर।।
वह विजय–मन्त्र था पढ़ा रहा¸ अपने दल को था बढ़ा रहा।
वह भीषण समर–भवानी को पग–पग पर बलि था चढ़ा रहा।।
फिर रक्त देह का उबल उठा जल उठा क्रोध की ज्वाला से।
घोड़े से कहा बढ़ो आगे¸ बढ़ चलो कहा निज भाला से।।
हय–नस नस में बिजली दौड़ी¸ राणा का घोड़ा लहर उठा।
शत–शत बिजली की आग लिए, वह प्रलय–मेघ–सा घहर उठा।।
क्षय अमिट रोग¸ वह राजरोग¸ ज्वर सन्निपात लकवा था वह।
था शोर बचो घोड़ा–रण से कहता हय कौन¸ हवा था वह।।
तनकर भाला भी बोल उठा, राणा मुझको विश्राम न दे।
बैरी का मुझसे हृदय गोभ, तू मुझे तनिक आराम न दे।।
खाकर अरि–मस्तक जीने दे¸ बैरी–उर–माला सीने दे।
मुझको शोणित की प्यास लगी बढ़ने दे¸ शोणित पीने दे।।
मुरदों का ढेर लगा दूं मैं¸ अरि–सिंहासन थहरा दूं मैं।
राणा मुझको आज्ञा दे दे शोणित सागर लहरा दूं मैं।।
रंचक राणा ने देर न की¸ घोड़ा बढ़ आया हाथी पर।
वैरी–दल का सिर काट–काट राणा चढ़ आया हाथी पर।।
गिरि की चोटी पर चढ़कर किरणों निहारती लाशें¸
जिनमें कुछ तो मुरदे थे¸ कुछ की चलती थी सांसें।।
वे देख–देख कर उनको मुरझाती जाती पल–पल।
होता था स्वर्णिम नभ पर पक्षी–क्रन्दन का कल–कल।।
मुख छिपा लिया सूरज ने जब रोक न सका रूलाई।
सावन की अन्धी रजनी वारिद–मिस रोती आई।। --- श्याम नारायण पाण्डेय

Monday, 19 May 2014

तारा सिंह

2.
सुनकर चीख दुखांत विश्व की
तरुण गिरि पर चढकर शंख फूँकती
चिर तृषाकुल विश्व की पीर मिटाने
गुहों में, कन्दराओं में बीहड़ वनों से झेलती
सिंधु शैलेश को उल्लासित करती
हिमालय व्योम को चूमती, वो देखो!
पुरवाई आ रही है स्वर्गलोक से बहती 
लहरा रही है चेतना, तृणों के मूल तक
महावाणी उत्तीर्ण हो रही है,स्वर्ग से भू पर 
भारत माता चीख रही है, प्रसव की पीर से
लगता है गरीबों का मसीहा गाँधी
जनम ले रहा है, धरा पर फिर से 
अब सबों को मिलेगा स्वर्णिम घट से
नव जीवन काजीवन-रस, एक समान
कयोंकि तेजमयी ज्योति बिछने वाली है
जलद जल बनाकर भारत की भूमि
जिसके चरण पवित्र से संगम होकर
धरती होगी हरी, नीलकमल खिलेंगे फिर से 
अब नहीं होगा खारा कोई सिंधु, मानव वंश के अश्रु से
क्योंकि रजत तरी पर चढकर, आ रही है आशा
विश्व -मानव के हृदय गृह को, आलोकित करने नभ से
अब गूँजने लगा है उसका निर्घोष, लोक गर्जन में
वद्युत अब चमकने लगा है, जन-जन के मन में


1.
अगर फूल-काँटे में फर्क हम समझते
बेवफा तुमसे मुहब्बत न हम करते

जो मालूम होता अन्जामे-उल्फत 
यूँ उल्फत से गले न हम लगते

बहुत दे चुके हैं इन्तहाएं मुहब्बत 
न होती मजबूरियाँ, शिकायत न हम करते

अगर होता मुमकिन तुम्हें भूल जाना
खुदा की कसम मुहब्बते-खत न हम लिखते

जो मालूम होता, मुहब्बते बरबादी में तुम भी हो 
शामिल, तो एहदे मुहब्बत न हम करते

Sunday, 18 May 2014

बलबीर सिंह रंग

5.शांत दृगों में धधक उठी फिर यहाँ क्रांति की ज्वाला ,
प्यासी धरती मांग उठी फिर हृदय-रक्त का प्याला .
समय स्वयं जपने बैठा फिर महा मृत्यु की माला,
इन्कलाब की बाट जोहता क्या अदना, क्या आला .
जनता के आवाहन पर नवयुग ने करवट फेरी .
फिर से गूंज उठी रणभेरी .

पूर्व आज स्वीकार कर उठा पश्चिम का रण-न्योता,
पराधीनता और स्वतंत्रता में कैसा समझौता ?
हमें राह से डिगा न सकते अरि के दमन सुधारे 
आजादी या मौत यही बस दो प्रस्ताव हमारे .
शूर बांधते कफन शीश से, कायर करते देरी,
फिर से गूंज उठी रणभेरी 



4.
युग के आहत उर की पीड़ा बन गई आज कविता मेरी।
अपने मानव की परवशता
मैंने कवि बन कर पहचानी,
दुख-विष के प्याले पीकर ही तो
सुख मधु की मृदुता जानी,
संघर्षों के वातायन से-
मैंने जग का अंतर झाँका,
जग से निज स्वार्थ कसौटी से
मेरी नि:च्छलता को आँका,
जग भ्रांति भरा, मैं क्रांति भरा जग से कैसी समता मेरी,
युग के आहत उर की पीड़ा बन गई आज कविता मेरी।

संसृति से मुझे अतृप्ति मिली
मैंने अनगिन अरमान दिए,
रोदन का दान मिला मुझको
मैंने मादक मृदुगान दिए,
व्यवहार कुशल जग में कवि के
वरदान किसी कब याद रहे,
शशि को दी रजत निशा मैंने
दिनकर को स्वर्ण-विहान दिए,
लघुता वसुधा में लीन हुई नभ ने ले ली गुस्र्ता मेरी
युग के आहत उर की पीड़ा बन गई आज कविता मेरी।

किस रवि की स्वर्णिम किरणों ने
मम उर-सरसिज के पात छुए,
मेरी हृद-वीणा पर किसके
सोये स्वर जगते राग हुए,
किसने मेरे कोमल उर पर
रख पीड़ाओं का भार दिया,
मैंने किसके आराधन को
अनजाने में स्वीकार किया,
यह प्रश्न उठे मैं मौन रहा जग समझा कायरता मेरी,
युग के आहत उर की पीड़ा बन गई आज कविता मेरी।

3.
पतझर-सा लगे वसन्त
तुम्हारी याद न जब आई

जिस सीमा में जग का जीवन बन्दी
जिस सीमा में कवि का क्रंदन बन्दी
जिसके आगे का देश सुनहरा है
जिस पर रहता भविष्य का पहरा है
वह सीमा बनी अनन्त
तुम्हारी याद न जब आई

जिस पथ पर अरमानों की हलचल आई
जिस पथ पर मैंने भूली मंज़िल पाई
जिस पथ पर मुझको मिली जवानी हँसती
विरहातप के संग शीतल कल-कल पाई
वह मिला धूलि में पंथ
तुम्हारी याद न जब आई

मैं अवसादों में पले प्यार की पीर पुरानी हूँ
जो अनजाने हो गई, हाय, मैं वह नादानी हूँ
वह नादानी बन गई आज जीवन की परिभाशःआ
प्राणों की पीड़ा बनी आज मृगजल की-सी आशा
आरम्भ बन गया अन्त
तुम्हारी याद न जब आई
पतझर-सा लगा वसन्त
तुम्हारी याद न जब आई


2

जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है ।

सहसा भूली याद तुम्हारी उर में आग लगा जाती है
विरह-ताप भी मधुर मिलन के सोये मेघ जगा जाती है,
मुझको आग और पानी में रहने का अभ्यास बहुत है
जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है ।

धन्य-धन्य मेरी लघुता को, जिसने तुम्हें महान बनाया,
धन्य तुम्हारी स्नेह-कृपणता, जिसने मुझे उदार बनाया,
मेरी अन्धभक्ति को केवल इतना मन्द प्रकाश बहुत है 
जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है ।

अगणित शलभों के दल के दल एक ज्योति पर जल-जल मरते
एक बूँद की अभिलाषा में कोटि-कोटि चातक तप करते,
शशि के पास सुधा थोड़ी है पर चकोर की प्यास बहुत है
जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है ।

मैंने आँखें खोल देख ली है नादानी उन्मादों की 
मैंने सुनी और समझी है कठिन कहानी अवसादों की,
फिर भी जीवन के पृष्ठों में पढ़ने को इतिहास बहुत है
जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है ।

ओ ! जीवन के थके पखेरू, बढ़े चलो हिम्मत मत हारो,
पंखों में भविष्य बंदी है मत अतीत की ओर निहारो,
क्या चिंता धरती यदि छूटी उड़ने को आकाश बहुत है
जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है ।

1.
जो गए आगे
उन्हीं से प्रेरणा लेकर
जो रहे पीछे
उन्हें नव चेतना देकर
रंग ऐसा हूँ सभी पर छा रहा हूँ मैं
कौन कहता है कि पीछे जा रहा हूँ मैं
है किसी में दम
जो मेरा ग़म ग़लत कर दे
मैं जगाऊँ राग कोई
साथ का स्वर दे
इस दुराशा में समय बहला रहा हूँ मैं
कौन कहता है कि पीछे जा रहा हूँ मैं
वह बढ़ेंगे क्या
जिन्हें रुकना नहीं आता
उच्चता पाकर जिन्हें
झुकना नहीं आता
जो नहीं समझे उन्हें समझा रहा हूँ मैं
कौन कहता है कि पीछे जा रहा हूँ मैं ||

Sunday, 4 May 2014

आरजू लखनवी

1.
क़फ़स से ठोकरें खाती नज़र जिस नख़्ल तक पहुँची।
उसी पर लेके इक तिनका बिनाए-आशियाँ रख दी॥

सकूनेदिल नहीं जिस वक़्त से इस बज़्म में आये।
ज़रा-सी चीज़ घबराहट में क्या जानें कहाँ रख दी॥

बुरा हो इस मुहब्बत का हुए बरबाद घर लाखों।
वहीं से आग लग उठी यह चिंगारी जहाँ रख दी॥

किया फिर तुमने रोता देख कर दीदार का वादा।
फिर एक बहते हुए पानी में बुनियादे-मकां रख दी॥

दर्देदिल ‘आरज़ू’ दरवाज़ा-ए-काबे से बहत्तर था।
यह ओ गफ़लत के मारे! तूने पेशानी कहाँ रख दी॥