3.
वक़्त का झोंका जो सब पत्ते उड़ा कर ले गया
क्यूँ न मुझ को भी तेरे दर से उठा कर ले गया
रात अपने चाहने वालों पे था वो मेहर-बाँ
मैं न जाता था मगर वो मुझ को आ कर ले गया
एक सैल-ए-बे-अमाँ जो आसियों को था सज़ा
नेक लोगों के घरों को भी बहा कर ले गया
मैं ने दरवाज़ा न रक्खा था के डरता था मगर
घर का सरमाया वो दीवारें गिरा कर ले गया
वो अयादत को तो आया था मगर जाते हुए
अपनी तस्वीरें भी कमरे से उठा कर ले गया
मैं जिसे बरसों की चाहत से न हासिल कर सका
एक हम-साया उसे कल वर्ग़ला कर ले गया
सज रही थी जिंस जो बाज़ार में इक उम्र से
कल उसे इक शख़्स पर्दों में छुपा कर ले गया
मैं खड़ा फ़ुट-पाठ पर करता रहा रिक्शा तलाश
मेरा दुश्मन उस को मोटर में बिठा कर ले गया
सो रहा हूँ में लिए ख़ाली लिफ़ाफ़ा हाथ में
उस में जो मज़मूँ था वो क़ासिद चुरा कर ले गया
रक़्स के वक़्फ़े में जब करने को था मैं अर्ज़-ए-शौक़
कोई उस को मेरे पहलू से उठा कर ले गया
ऐ अज़ाब-ए-दोस्ती मुझ को बता मेरे सिवा
कौन था जो तुझ को सीने से लगा कर ले गया
मेहर-बाँ कैसे कहूँ मैं 'अर्श' उस बे-दर्द को
नूर आँखों का जो इक जलवा दिखा कर ले गया
2.
ज़ंजीर से उठती है सदा सहमी हुई सी
जारी है अभी गर्दिश-ए-पा सहमी हुई सी
दिल टूट तो जाता है पे गिर्या नहीं करता
क्या डर है के रहती है वफ़ा सहमी हुई सी
उठ जाए नज़र भूल के गर जानिब-ए-अफ़्लाक
होंटों से निकलती है दुआ सहमी हुई सी
हाँ हँस लो रफ़ीक़ो कभी देखी नहीं तुम ने
नम-नाक निगाहों में हया सहमी हुई सी
तक़सीर कोई हो तो सज़ा उम्र का रोना
मिट जाएँ वफ़ा में तो जज़ा सहमी हुई सी
हाँ हम ने भी पाया है सिला अपने हुनर का
लफ़्ज़ों के लिफ़ाफ़ों में बक़ा सहमी हुई सी
हर लुक़मे पे खटका है कहीं ये भी न छिन जाए
मेदे में उतरती है ग़िज़ा सहमी हुई सी
उठती तो है सौ बार पे मुझ तक नहीं आती
इस शहर में चलती है हवा सहमी हुई सी
है 'अर्श' वहाँ आज मुहीत एक ख़ामोशी
जिस राह से गुज़री थी क़ज़ा सहमी हुई सी
1.
दरवाज़ा तेरे शहर का वा चाहिए मुझ को
दरवाज़ा तेरे शहर का वा चाहिए मुझ को
जीना है मुझे ताज़ा हवा चाहिए मुझ को
आज़ार भी थे सब से ज़्यादा मेरी जाँ पर
अल्ताफ़ भी औरों से सिवा चाहिए मुझ को
वो गर्म हवाएँ हैं के खुलती नहीं आँखें
सहरा मैं हूँ बादल की रिदा चाहिए मुझ को
लब सी के मेरे तू ने दिए फ़ैसले सारे
इक बार तो बे-दर्द सुना चाहिए मुझ को
सब ख़त्म हुए चाह के और ख़ब्त के क़िस्से
अब पूछने आए हो के क्या चाहिए मुझ को
हाँ छूटा मेरे हाथ से इक़रार का दामन
हाँ जुर्म-ए-ज़ईफ़ी की सज़ा चाहिए मुझ को
महबूस है गुम्बद में कबूतर मेरी जाँ का
उड़ने को फ़लक-बोस फ़ज़ा चाहिए मुझ को
सम्तों के तिलिस्मात में गुम है मेरी ताईद
क़िबला तो है इक क़िबला-नुमा चाहिए मुझ को
मैं पैरवी-ए-अहल-ए-सियासत नहीं करता
इक रास्ता इन सब से जुदा चाहिए मुझ को
वो शोर था महफ़िल में के चिल्ला उठा 'वाइज़'
इक जाम-ए-मय-ए-होश-रुबा चाहिए मुझ को
तक़सीर नहीं 'अर्श' कोई सामने फिर भी
जीता हूँ तो जीने की सज़ा चाहिए मुझ को