Wednesday 23 April 2014

अर्श सिद्दकी


3.
वक़्त का झोंका जो सब पत्ते उड़ा कर ले गया
 क्यूँ न मुझ को भी तेरे दर से उठा कर ले गया

 रात अपने चाहने वालों पे था वो मेहर-बाँ
 मैं न जाता था मगर वो मुझ को आ कर ले गया

 एक सैल-ए-बे-अमाँ जो आसियों को था सज़ा
 नेक लोगों के घरों को भी बहा कर ले गया

 मैं ने दरवाज़ा न रक्खा था के डरता था मगर
 घर का सरमाया वो दीवारें गिरा कर ले गया

 वो अयादत को तो आया था मगर जाते हुए
 अपनी तस्वीरें भी कमरे से उठा कर ले गया

 मैं जिसे बरसों की चाहत से न हासिल कर सका
 एक हम-साया उसे कल वर्ग़ला कर ले गया

 सज रही थी जिंस जो बाज़ार में इक उम्र से
 कल उसे इक शख़्स पर्दों में छुपा कर ले गया

 मैं खड़ा फ़ुट-पाठ पर करता रहा रिक्शा तलाश
 मेरा दुश्मन उस को मोटर में बिठा कर ले गया

 सो रहा हूँ में लिए ख़ाली लिफ़ाफ़ा हाथ में
 उस में जो मज़मूँ था वो क़ासिद चुरा कर ले गया

 रक़्स के वक़्फ़े में जब करने को था मैं अर्ज़-ए-शौक़
 कोई उस को मेरे पहलू से उठा कर ले गया

 ऐ अज़ाब-ए-दोस्ती मुझ को बता मेरे सिवा
 कौन था जो तुझ को सीने से लगा कर ले गया

 मेहर-बाँ कैसे कहूँ मैं 'अर्श' उस बे-दर्द को
 नूर आँखों का जो इक जलवा दिखा कर ले गया


2.
ज़ंजीर से उठती है सदा सहमी हुई सी
 जारी है अभी गर्दिश-ए-पा सहमी हुई सी


 दिल टूट तो जाता है पे गिर्या नहीं करता
 क्या डर है के रहती है वफ़ा सहमी हुई सी



 उठ जाए नज़र भूल के गर जानिब-ए-अफ़्लाक
 होंटों से निकलती है दुआ सहमी हुई सी



 हाँ हँस लो रफ़ीक़ो कभी देखी नहीं तुम ने
 नम-नाक निगाहों में हया सहमी हुई सी



 तक़सीर कोई हो तो सज़ा उम्र का रोना
 मिट जाएँ वफ़ा में तो जज़ा सहमी हुई सी



 हाँ हम ने भी पाया है सिला अपने हुनर का
 लफ़्ज़ों के लिफ़ाफ़ों में बक़ा सहमी हुई सी



 हर लुक़मे पे खटका है कहीं ये भी न छिन जाए
 मेदे में उतरती है ग़िज़ा सहमी हुई सी



 उठती तो है सौ बार पे मुझ तक नहीं आती
 इस शहर में चलती है हवा सहमी हुई सी



 है 'अर्श' वहाँ आज मुहीत एक ख़ामोशी
 जिस राह से गुज़री थी क़ज़ा सहमी हुई सी

1.
दरवाज़ा तेरे शहर का वा चाहिए मुझ को

दरवाज़ा तेरे शहर का वा चाहिए मुझ को

 जीना है मुझे ताज़ा हवा चाहिए मुझ को


 आज़ार भी थे सब से ज़्यादा मेरी जाँ पर
 अल्ताफ़ भी औरों से सिवा चाहिए मुझ को



 वो गर्म हवाएँ हैं के खुलती नहीं आँखें
 सहरा मैं हूँ बादल की रिदा चाहिए मुझ को



 लब सी के मेरे तू ने दिए फ़ैसले सारे
 इक बार तो बे-दर्द सुना चाहिए मुझ को



 सब ख़त्म हुए चाह के और ख़ब्त के क़िस्से
 अब पूछने आए हो के क्या चाहिए मुझ को



 हाँ छूटा मेरे हाथ से इक़रार का दामन
 हाँ जुर्म-ए-ज़ईफ़ी की सज़ा चाहिए मुझ को



 महबूस है गुम्बद में कबूतर मेरी जाँ का
 उड़ने को फ़लक-बोस फ़ज़ा चाहिए मुझ को



 सम्तों के तिलिस्मात में गुम है मेरी ताईद
 क़िबला तो है इक क़िबला-नुमा चाहिए मुझ को



 मैं पैरवी-ए-अहल-ए-सियासत नहीं करता
 इक रास्ता इन सब से जुदा चाहिए मुझ को



 वो शोर था महफ़िल में के चिल्ला उठा 'वाइज़'
 इक जाम-ए-मय-ए-होश-रुबा चाहिए मुझ को



 तक़सीर नहीं 'अर्श' कोई सामने फिर भी
 जीता हूँ तो जीने की सज़ा चाहिए मुझ को

असअद भोपाली

ज़िंदगी का हर नफ़स मम्नून है तदबीर का
वाइज़ो धोका न दो इंसान को तक़दीर का

अपनी सन्नाई की तुझ को लाज भी है या नहीं
ऐ मुसव्विर देख रंग उड़ने लगा तस्वीर का

आप क्यूँ घबरा गए ये आप को क्या हो गया
मेरी आहों से कोई रिश्ता नहीं तासीर का

दिल से नाज़ुक शय से कब तक ये हरीफ़ाना सुलूक
देख शीशा टूटा जाता है तेरी तस्वीर का

हर नफ़स की आमद ओ शुद पर ये होती है ख़ुशी
एक हल्क़ा और भी कम हो गया ज़ंजीर का

फ़र्क़ इतना है के तू पर्दे में और मैं बे-हिजाब
वरना मैं अक्स-ए-मुकम्मल हूँ तेरी तस्वीर का

Wednesday 16 April 2014

मोहसिन नकवी .

1.
जब तेरी धुन में जिया करते थे


" जब तेरी धुन में जिया करते थे
हम भी चुप चाप फिरा करते थे

आँख में प्यास हुवा करती थी
दिल में तूफ़ान उठा करते थे

लोग आते थे ग़ज़ल सुनने को
हम तेरी बात किया करते थे

सच समझते थे तेरे वादों को
रात दिन घर में रहा करते थे

किसी वीराने में तुझसे मिलकर
दिल में क्या फूल खिला करते थे

घर की दीवार सजाने के लिए
हम तेरा नाम लिखा करते थे

वोह भी क्या दिन थे भुला कर तुझको
हम तुझे याद किया करते थे

जब तेरे दर्द में दिल दुखता था
हम तेरे हक में दुआ करते थे

बुझने लगता जो चेहरा तेरा
दाग सीने में जला करते थे

अपने जज्बों की कमंदों से तुझे
हम भी तस्खीर किया करते थे

अपने आंसू भी सितारों की तरह
तेरे होंटों पे सजा करते थे

छेड़ता था गम-ए-दुनिया जब भी
हम तेरे गम से गिला करते थे

कल तुझे देख के याद आया है
हम सुख्नूर भी हुआ करते थे "


2.
बिछड़ने से मुहब्बत तो नहीं मरती
 उसे कहना बिछड़ने से मुहब्बत तो नहीं मरती
बिछड़ जाना मुहब्बत की सदाकत की अलामत है

मुहब्बत एक फितरत है, हाँ फितरत कब बदलती है
सो, जब हम दूर हो जाएं, नए रिश्तों में खो जाएं

तो यह मत सोच लेना तुम, के मुहब्बत मर गई होगी
नहीं ऐसे नहीं होगा ..

मेरे बारे में गर तुम्हारी आंखें भर आयें
छलक कर एक भी आंसू पलक पे जो उतर आये

तो बस इतना समझ लेना,
जो मेरे नाम से इतनी तेरे दिल को अकीदत है

तेरे दिल में बिछड़ कर भी अभी मेरी मुहब्बत है 
मुहब्बत तो बिछड़ कर भी सदा आबाद रहती है

मुहब्बत हो किसी से तो हमेशा याद रहती है
मुहब्बत वक़्त के बे-रहम तूफ़ान से नहीं डरती


3.
 उसने जब जब भी मुझे दिल से पुकारा मोहसिन

उसने जब जब भी मुझे दिल से पुकारा मोहसिन
मैंने तब तब यह बताया के तुम्हारा मोहसिन

लोग सदियों की खताओं पे भी खुश बसते हैं
हमको लम्हों की वफाओं ने उजाड़ा मोहसिन

जब आगया हो ये यकीन अब वोह नहीं आयेगा
गम और आंसू ने दिया दिल को सहारा मोहसिन

वोह था जब पास तो जीने को भी दिल करता था
अब तो पल भर भी नहीं होता गुज़ारा मोहसिन

उसको पाना तो मुक़द्दर की लकीरों में नहीं
उसका खोना भी करें कैसा गवारा मोहसिन"


4.
 वफ़ा में अब यह हुनर इख्तियार करना है 

" वफ़ा में अब यह हुनर इख्तियार करना है 
वोह सच कहे न कहे ऐतबार करना है 

यह तुझ को जागते रहने का शौक कब से हुआ?
मुझे तो खैर तेरा इंतजार करना है

हवा की ज़द में जलाने हैं आंसूं के चिराग
कभी ये जशन सर ए-राह-गुज़र करना है

वोह मुस्कुरा के नए वास-वासों में ढल गया
ख़याल था के उसे शरमसार करना है

मिसाल-ए-शाख-ए बढ़ाना खिजान की रुत में कभी
खुद अपने जिसम को बे बर्ग ओ बार करना है

तेरे फ़िराक में दिन किस तरह कटें अपने
कि शुगल-ए-शब् तो सितारे शुमार करना है

चलो ये अश्क ही मोती समझ के बेच आये
किसी तरह तो हमें रोज़गार करना है

कभी तो दिल में छुपे ज़ख़्म भी नुमायाँ हों
काबा समझ के बदन तार तार करना है

खुदा जाने ये कोई जिद, के शौक है मोहसिन
खुद अपनी जान के दुश्मन से प्यार करना है "

Monday 14 April 2014

धर्मवीर भारती

1.
मुनादी 

खलक खुदा का, मुलुक बाश्शा का
हुकुम शहर कोतवाल का...
हर खासो-आम को आगह किया जाता है
कि खबरदार रहें
और अपने-अपने किवाड़ों को अन्दर से
कुंडी चढा़कर बन्द कर लें
गिरा लें खिड़कियों के परदे
और बच्चों को बाहर सड़क पर न भेजें
क्योंकि
एक बहत्तर बरस का बूढ़ा आदमी अपनी काँपती कमजोर आवाज में
सड़कों पर सच बोलता हुआ निकल पड़ा है !

शहर का हर बशर वाकिफ है
कि पच्चीस साल से मुजिर है यह
कि हालात को हालात की तरह बयान किया जाए
कि चोर को चोर और हत्यारे को हत्यारा कहा जाए
कि मार खाते भले आदमी को
और असमत लुटती औरत को
और भूख से पेट दबाये ढाँचे को
और जीप के नीचे कुचलते बच्चे को
बचाने की बेअदबी की जाय !

जीप अगर बाश्शा की है तो
उसे बच्चे के पेट पर से गुजरने का हक क्यों नहीं ?
आखिर सड़क भी तो बाश्शा ने बनवायी है !
बुड्ढे के पीछे दौड़ पड़ने वाले
अहसान फरामोशों ! क्या तुम भूल गये कि बाश्शा ने
एक खूबसूरत माहौल दिया है जहाँ
भूख से ही सही, दिन में तुम्हें तारे नजर आते हैं
और फुटपाथों पर फरिश्तों के पंख रात भर
तुम पर छाँह किये रहते हैं
और हूरें हर लैम्पपोस्ट के नीचे खड़ी
मोटर वालों की ओर लपकती हैं
कि जन्नत तारी हो गयी है जमीं पर;
तुम्हें इस बुड्ढे के पीछे दौड़कर
भला और क्या हासिल होने वाला है ?

आखिर क्या दुश्मनी है तुम्हारी उन लोगों से
जो भलेमानुसों की तरह अपनी कुरसी पर चुपचाप
बैठे-बैठे मुल्क की भलाई के लिए
रात-रात जागते हैं;
और गाँव की नाली की मरम्मत के लिए
मास्को, न्यूयार्क, टोकियो, लन्दन की खाक
छानते फकीरों की तरह भटकते रहते हैं...
तोड़ दिये जाएँगे पैर
और फोड़ दी जाएँगी आँखें
अगर तुमने अपने पाँव चल कर
महल-सरा की चहारदीवारी फलाँग कर
अन्दर झाँकने की कोशिश की !

क्या तुमने नहीं देखी वह लाठी
जिससे हमारे एक कद्दावर जवान ने इस निहत्थे
काँपते बुड्ढे को ढेर कर दिया ?
वह लाठी हमने समय मंजूषा के साथ
गहराइयों में गाड़ दी है
कि आने वाली नस्लें उसे देखें और
हमारी जवाँमर्दी की दाद दें

अब पूछो कहाँ है वह सच जो
इस बुड्ढे ने सड़कों पर बकना शुरू किया था ?
हमने अपने रेडियो के स्वर ऊँचे करा दिये हैं
और कहा है कि जोर-जोर से फिल्मी गीत बजायें
ताकि थिरकती धुनों की दिलकश बलन्दी में
इस बुड्ढे की बकवास दब जाए !

नासमझ बच्चों ने पटक दिये पोथियाँ और बस्ते
फेंक दी है खड़िया और स्लेट
इस नामाकूल जादूगर के पीछे चूहों की तरह
फदर-फदर भागते चले आ रहे हैं
और जिसका बच्चा परसों मारा गया
वह औरत आँचल परचम की तरह लहराती हुई
सड़क पर निकल आयी है।

ख़बरदार यह सारा मुल्क तुम्हारा है
पर जहाँ हो वहीं रहो
यह बगावत नहीं बर्दाश्त की जाएगी कि
तुम फासले तय करो और
मंजिल तक पहुँचो

इस बार रेलों के चक्के हम खुद जाम कर देंगे
नावें मँझधार में रोक दी जाएँगी
बैलगाड़ियाँ सड़क-किनारे नीमतले खड़ी कर दी जाएँगी
ट्रकों को नुक्कड़ से लौटा दिया जाएगा
सब अपनी-अपनी जगह ठप !
क्योंकि याद रखो कि मुल्क को आगे बढ़ना है
और उसके लिए जरूरी है कि जो जहाँ है
वहीं ठप कर दिया जाए !

बेताब मत हो
तुम्हें जलसा-जुलूस, हल्ला-गूल्ला, भीड़-भड़क्के का शौक है
बाश्शा को हमदर्दी है अपनी रियाया से
तुम्हारे इस शौक को पूरा करने के लिए
बाश्शा के खास हुक्म से
उसका अपना दरबार जुलूस की शक्ल में निकलेगा
दर्शन करो !
वही रेलगाड़ियाँ तुम्हें मुफ्त लाद कर लाएँगी
बैलगाड़ी वालों को दोहरी बख्शीश मिलेगी
ट्रकों को झण्डियों से सजाया जाएगा
नुक्कड़ नुक्कड़ पर प्याऊ बैठाया जाएगा
और जो पानी माँगेगा उसे इत्र-बसा शर्बत पेश किया जाएगा
लाखों की तादाद में शामिल हो उस जुलूस में
और सड़क पर पैर घिसते हुए चलो
ताकि वह खून जो इस बुड्ढे की वजह से
बहा, वह पुँछ जाए !

बाश्शा सलामत को खूनखराबा पसन्द नहीं !

[तानाशाही का असली रूप सामने आते देर नहीं लगी। नवम्बर की शुरूआत में ही हुआ वह भयानक हादसा। जे.पी.ने पटना में भ्रष्टाचार के खिलाफ रैली बुलायी। हर उपाय पर भी लाखों लोग सरकारी शिकंजा तोड़ कर आये। उन निहत्थों पर निर्मम लाठी-चार्ज का आदेश दिया गया। अखबारों में धक्का खा कर नीचे गिरे हुए बूढ़े जे.पी.उन पर तनी पुलिस की लाठी, बेहोश जे.पी.और फिर घायल सिर पर तौलिया डाले लड़खड़ा कर चलते हुए जे.पी.। दो-तीन दिन भयंकर बेचैनी रही, बेहद गुस्सा और दुख...9 नवम्बर रात 10 बजे यह कविता अनायास फूट पड़ी]

Tuesday 8 April 2014

जॉन एलिया

1.
आगे असबे खूनी चादर और खूनी परचम निकले 
जैसे निकला अपना जनाज़ा ऐसे जनाज़े कम निकले 


दौर अपनी खुश-दर्दी रात बहुत ही याद आया
अब जो किताबे शौक निकाली सारे वरक बरहम निकले 

है ज़राज़ी इस किस्से की, इस किस्से को खतम करो 
क्या तुम निकले अपने घर से, अपने घर से हम निकले 

मेरे कातिल, मेरे मसिहा, मेरी तरहा लासनी है
हाथो मे तो खंजर चमके, जेबों से मरहम निकले 

'जॉन' शहादतजादा हूँ मैं और खूनी दिल निकला हूँ
मेरा जूनू उसके कूचे से कैसे बेमातम निकले !!

2.
महक उठा है आँगन इस ख़बर से
वो ख़ुशबू लौट आई है सफ़र से 

जुदाई ने उसे देखा सर-ए-बाम
दरीचे पर शफ़क़ के रंग बरसे 

मैं इस दीवार पर चढ़ तो गया था 
उतारे कौन अब दीवार पर से 

गिला है एक गली से शहर-ए-दिल की 
मैं लड़ता फिर रहा हूँ शहर भर से 

उसे देखे ज़माने भर का ये चाँद
हमारी चाँदनी छाए तो तरसे 

मेरे मानन गुज़रा कर मेरी जान 
कभी तू खुद भी अपनी रहगुज़र से

Friday 4 April 2014

इरफ़ान सिद्दकी

1.
उसने बेकार ये बहरूप बनाया हुआ है,
हमने जादू का एक आईना लगाया हुआ है।

दो जगह रहते है हम, एक तो यह शहर-ए-मलाल,
एक वो शहर जो खवाबों में बसाया हुआ है।

रात और इतनी मुसल्सल! किसी दीवाने ने,
सुबह रोकी हुई है, चाँद चुराया हुआ है।

इश्क़ से भी किसी दिन मा'रका फैसल हो जाए,
उसने मुद्द्त से बहुत हश्र उठाया हुआ है।

लग्ज़िशें कौन सम्भाले कि मुहब्ब्त में यहाँ,
हमने पहले ही बहुत बोझ उठाया हुआ है। 

2.
होशियारी दिल-ए-नादान बहुत करता है ,
रंज कम सहता है एलान बहुत करता है |

रात को जीत तो पाता नहीं लेकिन ये चराग ,
कम से कम रात का नुकसान बहुत करता है |

आज कल अपना सफर तय नहीं करता कोई,
हाँ सफर का सर-ओ-सामान बहुत करता है |

अब ज़बाँ खंज़र-ए-कातिल की सना करती है,
हम वो ही करते है जो खल्त-ए-खुदा करती है |

हूँ का आलम है गिराफ्तारों की आबादी में, 
हम तो सुनते थे की ज़ंज़ीर सदा करती है |