Sunday 29 September 2013

डा॰हरीओम पवार

1.

जो सीने पर गोली खाने को आगे बढ़ जाते थे,

भारत माता की जय कह कर फ़ासीं पर जाते थे |

जिन बेटो ने धरती माता पर कुर्बानी दे डाली,

आजादी के हवन कुँड के लिये जवानी दे डाली !

वे देवो की लोकसभा के अँग बने बैठे होगे

वे सतरँगी इन्द्रधनुष के रँग बने बैठे होगे !

दूर गगन के तारे उनके नाम दिखाई देते है

उनके स्मारक चारो धाम दिखाई देते है !

जिनके कारण ये भारत आजाद दिखाई देता है

अमर तिरँगा उन बेटो की याद दिखाई देता है !

उनका नाम जुबा पर लो तो पलको को झपका लेना

उनको जब भी याद करो तो दो आँसू टपका लेना

उनको जब भी याद करो तो दो आँसू टपका लेना....

Friday 27 September 2013

हयात हाशमी

1.
क्यों हमें मौत के पैग़ाम दिए जाते हैं 

ये सज़ा कम तो नहीं है कि जिए जाते हैं

क़ब्र की धूल चिताओं का धुआँ बेमानी 
ज़िन्दगी में ये कफ़न पहन लिए जाते हैं 

उनके क़दमों पे न रख सर कि है ये बेअदबी 
पा-ए-नाज़ुक तो सर-आँखों पे लिए जाते हैं

आबगीनों की तरह दिल हैं ग़रीबों के हयात 
टूट जाते हैं कबी तोड़ दिए जाते हैं



2.
आशियाँ 'बर्क़ आशियाँ' ही रहा 
तिनका-तिनका,धुआँ-धुआँ ही रहा

खून रोते रहे नज़र वाले 
इस ज़मीं पर भी आसमाँ ही रहा

हम सितम का शिकार होते रहे
आप का नाम मेहरबाँ ही रहा

दावत-ए-ग़म क़ुबूल की हमने 
फिर भी एहसान-ए-दोस्ताँ ही रहा

दायरा आदमी की सोचों का 
किफ़्र-ओ-ईमाँ के दरमियाँ ही रहा

पायमाली हयात की क़िस्मत 
दिल गुज़रगाह-ए-महवशाँ ही रहा

मुजफ्फर हनफी



1.

बेसबब रूठ के जाने के लिए आए थे 
आप तो हमको मनाने के लिए आए थे 


ये जो कुछ लोग खमीदा हैं कमानों की तरह
आसमानों को झुकाने के लिए आए थे

हमको मालूम था दरिया में नहीं है पानी 
सर को नेज़े पे चढ़ाने के लिए आए थे 

इखतिलाफ़ों को अक़ीदे का नया नाम न दो 
तुम ये दीवार गिराने के लिए आए थे 

है कोई सिम्त कि बरसाए न हम पर पत्थर 
हम यहाँ फूल खिलाने के लिए आए थे 

हाथ की बर्फ़ न पिघले तो मुज़फ़्फ़र क्या हो 
वो मेरी आग चुराने के लिए आए थे 


2.
ये बात खबर में आ गई है 
ताक़त मेरे पर में आ गई है 

आवारा परिन्दों को मुबारक 
हरियाली शजर में आ गई है

इक मोहिनी शक्ल झिलमिलाती 
फिर दीदा ए तर में आ गई है 

शोहरत के लिए मुआफ़ करना 
कुछ धूल सफ़र में आ गई है 

हम और न कर सकेंगे बरदाश्त 
दीवानगी सर में आ गई है

रातों को सिसकने वाली शबनम 
सूरज की नज़र में आ गई है 

अब आग से कुछ नहीं है महफ़ूज़ 
हमसाए के घर में आ गई है 


3.
पड़ोसी तुम्हारी नज़र में भी हैं 
यही मशविरे उनके घर में भी हैं 

मकीनों की फ़रियाद जाली सही
मगर ज़ख्म दीवार-व-दर में भी हैं 

बगूले की मसनद पे बैठे हैं हम 
सफ़र में नहीं हैं सफ़र में भी हैं 

तड़पने से कोई नहीं रोकता 
शिकंजे मेरे बाल-व-पर में भी हैं

तेरे बीज बोने से क्या फ़ायदा 
समर क्या किसी इक शजर में भी हैं

हमें क्या खबर थी कि शायर हैं वो 
मुज़फ़्फ़र मियाँ इस हुनर में भी हैं

Thursday 26 September 2013

सुदर्शन फ़ाकिर (3)

1.
किसी रंजिश को हवा दो कि मैं ज़िंदा हूँ अभी
मुझ को एहसास दिला दो कि मैं ज़िंदा हूँ अभी
मेरे रुकने से मेरी साँसे भी रुक जायेंगी
फ़ासले और बड़ा दो कि मैं ज़िंदा हूँ अभी
ज़हर पीने की तो आदत थी ज़मानेवालो
अब कोई और दवा दो कि मैं ज़िंदा हूँ अभी
चलती राहों में यूँ ही आँख लगी है 'फ़ाकिर'
भीड़ लोगों की हटा दो कि मैं ज़िंदा हूँ अभी


2 .
आदमी आदमी को क्या देगा
जो भी देगा वही ख़ुदा देगा
मेरा क़ातिल ही मेरा मुंसिब है
क्या मेरे हक़ में फ़ैसला देगा
ज़िन्दगी को क़रीब से देखो
इसका चेहरा तुम्हें रुला देगा
हमसे पूछो दोस्ती का सिला
दुश्मनों का भी दिल हिला देगा
इश्क़ का ज़हर पी लिया "फ़ाकिर"
अब मसीहा भी क्या दवा देगा 



3.
अगर हम कहें और वो मुस्कुरा दें
हम उनके लिए ज़िंदगानी लुटा दें
हर एक मोड़ पर हम ग़मों को सज़ा दें
चलो ज़िन्दगी को मोहब्बत बना दें
अगर ख़ुद को भूले तो, कुछ भी न भूले
कि चाहत में उनकी, ख़ुदा को भुला दें
कभी ग़म की आँधी, जिन्हें छू न पाये
वफ़ाओं के हम, वो नशेमन बना दें
क़यामत के दीवाने कहते हैं हमसे
चलो उनके चहरे से पर्दा हटा दें 

Wednesday 25 September 2013

कतील ( 3 )

1.
सदमा तो है मुझे भी कि तुझसे जुदा हूँ मैं 
लेकिन ये सोचता हूँ कि अब तेरा क्या हूँ मैं 

बिखरा पड़ा है तेरे ही घर में तेरा वजूद 
बेकार महफ़िलों में तुझे ढूँढता हूँ मैं 


मैं ख़ुदकशी के जुर्म का करता हूँ ऐतराफ़ 
अपने बदन की क़ब्र में कब से गड़ा हूँ मैं 

किस-किसका नाम लाऊँ ज़बाँ पर कि तेरे साथ 
हर रोज़ एक शख़्स नया देखता हूँ मैं 

ना जाने किस अदा से लिया तूने मेरा नाम 
दुनिया समझ रही है के सब कुछ तेरा हूँ मैं 

ले मेरे तजुर्बों से सबक ऐ मेरे रक़ीब 
दो चार साल उम्र में तुझसे बड़ा हूँ मैं 

जागा हुआ ज़मीर वो आईना है 
सोने से पहले रोज़ जिसे देखता हूँ मैं

2.
ख़ुशबुओं की तरह जो बिखर जाएगा
अक़्स उसका दिलों में उतर जाएगा

दर्द से रोज़ करते रहो गुफ़्तगू
ज़ख़्म गहरा भी हो तो वो भर जाएगा

वो न ख़ंजर से होगा न तलवार से
तीर नज़रों का जो काम कर जाएगा

हसरतों के चराग़ों को रौशन करो
दिल तुम्हारा उजालों से भर जाएगा

वक़्त कैसा भी हो वो ठहरता नहीं
जो बुरा वक़्त है वो गुज़र जाएगा

धड़कनों की तरह चल रही है घड़ी
एक दिन वक़्त यानी ठहर जाएगा

ज़िन्दगी से मुहब्बत बहुत हो गई
जाने कब दिल से मरने का डर जाएगा


3.
तुम पूछो और मैं न बताऊँ ऐसे तो हालात नहीं
एक ज़रा सा दिल टूटा है और तो कोई बात नहीं

किसको ख़बर थी साँवले बादल बिन बरसे उड़ जाते हैं
सावन आया लेकिन अपनी क़िस्मत में बरसात नहीं

माना जीवन में औरत एक बार मोहब्बत करती है
लेकिन मुझको ये तो बता दे क्या तू औरत ज़ात नहीं

टूट गया जब दिल तो फिर साँसों का नग़मा क्या माने
गूँज रही है क्यों शहनाई जब कोई बारात नहीं

ख़त्म हुआ मेरा अफ़साना अब ये आँसू पोंछ भी लो
जिसमें कोई तारा चमके आज की रात वो रात नहीं

मेरे ग़मग़ीं होने पर एहबाब हैं यूँ हैरान ‘क़तील’
जैसे मैं पत्थर हूँ मेरे सीने में जज़्बात नहीं

बशीर बद्र (5 )

1.
सर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जाएगा । 
इतना मत चाहो उसे, वो बेवफ़ा हो जाएगा ।

हम भी दरिया हैं, हमें अपना हुनर मालूम है, 
जिस तरफ़ भी चल पड़ेंगे, रास्ता हो जाएगा । 

कितना सच्चाई से, मुझसे ज़िंदगी ने कह दिया, 
तू नहीं मेरा तो कोई, दूसरा हो जाएगा । 

मैं ख़ुदा का नाम लेकर, पी रहा हूँ दोस्तो, 
ज़हर भी इसमें अगर होगा, दवा हो जाएगा । 

सब उसी के हैं, हवा, ख़ुश्बू, ज़मीनो-आस्माँ, 
मैं जहाँ भी जाऊँगा, उसको पता हो जाएगा ।



2 .
सौ ख़ुलूस बातों में सब करम ख़यालों में
बस ज़रा वफ़ा कम है तेरे शहर वालों में

पहली बार नज़रों ने चाँद बोलते देखा
हम जवाब क्या देते खो गये सवालों में

रात तेरी यादों ने दिल को इस तरह छेड़ा
जैसे कोई चुटकी ले नर्म नर्म गालों में

मेरी आँख के तारे अब न देख पाओगे
रात के मुसाफ़िर थे खो गये उजालों में


3.
वही ताज है वही तख़्त है वही ज़हर है वही जाम है
ये वही ख़ुदा की ज़मीन है ये वही बुतों का निज़ाम है

बड़े शौक़ से मेरा घर जला कोई आँच न तुझपे आयेगी
ये ज़ुबाँ किसी ने ख़रीद ली ये क़लम किसी का ग़ुलाम है

मैं ये मानता हूँ मेरे दिये तेरी आँधियोँ ने बुझा दिये
मगर इक जुगनू हवाओं में अभी रौशनी का इमाम है


4.
भीगी हुई आँखों का ये मंज़र न मिलेगा
घर छोड़ के मत जाओ कहीं घर न मिलेगा

फिर याद बहुत आयेगी ज़ुल्फ़ों की घनी शाम
जब धूप में साया कोई सर पर न मिलेगा

आँसू को कभी ओस का क़तरा न समझना
ऐसा तुम्हें चाहत का समुंदर न मिलेगा

इस ख़्वाब के माहौल में बे-ख़्वाब हैं आँखें
बाज़ार में ऐसा कोई ज़ेवर न मिलेगा

ये सोच लो अब आख़िरी साया है मुहब्बत
इस दर से उठोगे तो कोई दर न मिलेगा


5.
आ चाँदनी भी मेरी तरह जाग रही है
पलकों पे सितारों को लिये रात खड़ी है

ये बात कि सूरत के भले दिल के बुरे हों
अल्लाह करे झूठ हो बहुतों से सुनी है

वो माथे का मतला हो कि होंठों के दो मिसरे
बचपन की ग़ज़ल ही मेरी महबूब रही है

ग़ज़लों ने वहीं ज़ुल्फ़ों के फैला दिये साये
जिन राहों पे देखा है बहुत धूप कड़ी है

हम दिल्ली भी हो आये हैं लाहौर भी घूमे
ऐ यार मगर तेरी गली तेरी गली है

Monday 16 September 2013

साहिर लुधियानवी (3)

1.
अब न इन ऊंचे मकानों में क़दम रक्खूंगा
मैंने इक बार ये पहले भी क़सम खाई थी
अपनी नादार मोहब्बत की शिकस्तों के तुफ़ैल
ज़िन्दगी पहले भी शरमाई थी, झुंझलाई थी

और ये अहद किया था कि ब-ई-हाले-तबाह
अब कभी प्यार भरे गीत नहीं गाऊंगा
किसी चिलमन ने पुकारा भी तो बढ़ जाऊँगा
कोई दरवाज़ा खुला भी तो पलट आऊंगा

फिर तिरे कांपते होंटों की फ़ुन्सूकार हंसी
जाल बुनने लगी, बुनती रही, बुनती ही रही
मैं खिंचा तुझसे, मगर तू मिरी राहों के लिए
फूल चुनती रही, चुनती रही, चुनती ही रही

बर्फ़ बरसाई मिरे ज़ेहनो-तसव्वुर ने मगर
दिल में इक शोला-ए-बेनाम-सा लहरा ही गया
तेरी चुपचाप निगाहों को सुलगते पाकर
मेरी बेज़ार तबीयत को भी प्यार आ ही गया

अपनी बदली हुई नज़रों के तकाज़े न छुपा
मैं इस अंदाज़ का मफ़हूम समझ सकता हूँ
तेरे ज़रकार दरीचों को बुलंदी की क़सम
अपने इकदाम का मकसूम[ समझ सकता हूँ

अब न इन ऊँचे मकानों में क़दम रक्खूंगा
मैंने इक बार ये पहले भी क़सम खाई थी
इसी सर्माया-ओ-इफ़लास के दोराहे पर
ज़िन्दगी पहले भी शरमाई थी, झुंझलाई थी
ब-ई-हाले-तबाह -यों तबाह-हाल होने पर भी //
 फ़ुन्सूकार=जादू भरी  //ज़ेहनो-तसव्वुर ने =मस्तिष्क तथा कल्पना ने// मफ़हूम =अर्थ 
ज़रकार =स्वर्णिम // मकसूम[ =कदम बढ़ाने का भाग्य(परिणाम) //
 सर्माया-ओ-इफ़लास के =धन तथा निर्धनता के
2.
मैं ज़िन्दा हूँ ये मुश्तहर कीजिए

मेरे क़ातिलों को ख़बर कीजिए

ज़मीं सख्त है, आसमाँ दूर है

बसर हो सके तो बसर कीजिए


सितम के बहुत से हैं रद्दे-अमल

ज़रूरी नहीं चश्म तर कीजिए


वही ज़ुल्म बारे-दिगर है तो फिर

वही ज़ुर्म बारे-दिगर कीजिए


क़फ़स तोड़ना बाद की बात है

अभी ख़्वाहिशे-बालो-पर कीजिए




3. 
ज़ुल्म फिर ज़ुल्म है, बढ़ता है तो मिट जाता है
ख़ून फिर ख़ून है टपकेगा तो जम जाएगा
तुमने जिस ख़ून को मक़्तल में दबाना चाहा
आज वह कूचा-ओ-बाज़ार में आ निकला है
कहीं शोला, कहीं नारा, कहीं पत्थर बनकर
ख़ून चलता है तो रूकता नहीं संगीनों से
सर उठाता है तो दबता नहीं आईनों से

जिस्म की मौत कोई मौत नहीं होती है
जिस्म मिट जाने से इन्सान नहीं मर जाते
धड़कनें रूकने से अरमान नहीं मर जाते
साँस थम जाने से ऐलान नहीं मर जाते
होंठ जम जाने से फ़रमान नहीं मर जाते
जिस्म की मौत कोई मौत नहीं होती

ख़ून अपना हो या पराया हो
नस्ले आदम का ख़ून है आख़िर
जंग मशरिक में हो कि मग़रिब में
अमने आलम का ख़ून है आख़िर

बम घरों पर गिरें कि सरहद पर
रूहे- तामीर ज़ख़्म खाती है
खेत अपने जलें या औरों के
ज़ीस्त फ़ाक़ों से तिलमिलाती है

जंग तो ख़ुद हीं एक मअसला है
जंग क्या मअसलों का हल देगी
आग और खून आज बख़्शेगी
भूख और अहतयाज कल देगी


बरतरी के सुबूत की ख़ातिर
खूँ बहाना हीं क्या जरूरी है
घर की तारीकियाँ मिटाने को 
घर जलाना हीं क्या जरूरी है

टैंक आगे बढें कि पीछे हटें
कोख धरती की बाँझ होती है
फ़तह का जश्न हो कि हार का सोग
जिंदगी मय्यतों पे रोती है

इसलिए ऐ शरीफ इंसानों
जंग टलती रहे तो बेहतर है
आप और हम सभी के आँगन में
शमा जलती रहे तो बेहतर है।

Sunday 15 September 2013

गौहर रजा (2 )


दुआ 

काश  यह बेटियां बिगड़ जाये 
इतना बिगड़े के ये  बिफर जाएँ  
उन पे बिफरे जो तीर-ओ-तेशा लिए  
राह में बुन रहे हैं  दार  ओ रसन  
और हर आज़माइश - ए -दार -ओ - रसन  
इनको रस्ते  की धूल लगने लगे  

काश ऐसा हो अपने चेहरे से  
आंचलो को झटक के सब से कहें  
ज़ुल्म की हद जो तुम ने खेंची  थी  
उस को पीछे कभी का छोड़ चुके  

काश चेहरे से खौफ का ये हिजाब  
यक-ब-यक इस तरह पिघल जाये  
तमतमा उट्ठे  ये  रुख़ ए रोशन  
दिल का हर तार टूटने सा लगे  

काश ऐसा हो सहमी आँखों में  
कहर की बिजलियाँ कड़क  उट्ठें 
और मांगे ये  सारी दुनिया से 
एक-एक कर के हर गुनाह का हिसाब 
वोह गुनाह जो कभी किये ही नहीं 
और उनका भी जो ज़रूरी है  

काश ऐसा हो मेरे दिल की कसक  
इनके नाज़ुक लबों से फूट पड़े 

2.

गौहर रज़ा की नज़्म-
जलियांवाला बाग़

"कभी तो स्वर्ग झुक के पूछता ही होगा ए फलक.
ये कैसी सरज़मीन है, ये कौन लोग थे यहाँ,
जो जिंदगी की बाजियों को जीतने की चाह में,
लुटा रहे थे बेझिझक, लहू की सब अशर्फियाँ.
यहाँ लहू, लहू के रंग में, नया था किस तरह,
न सब्ज़ था, न केसरी, न था सलीब का निशां,
न राम नाम था यहाँ, न थी खुदा की रहमतें,
न जन्नतों की चाह थी, न दोजखों का खौफ था,
न स्वर्ग इनकी मंजिलें, न नर्क का सवाल था,
मसीह-ओ-गौतम-ओ-रसूल, कृष्ण, कोई भी नहीं,
कि जिसके नाम जाम पी के मस्त हो गए हों सब,
ये कौन सी शराब थी, कि जिसका ये सुरूर था,
ये किस तरह की मस्तियों में इसकदर गुरुर था,
ये किस तरह यकीन हो, कि एक मुश्त-ए-खाक है,
जो जिंदगी की मांग में, बिखर गयी सिन्दूर सी,
इन्हें यकीन था कि इनके दम से ही बहार है,
ये कह रहे थे, हम से ही बहार पर निखार है,
बहार पर ये बंदिशें इन्हें क़ुबूल क्यों नहीं,
इन्हें क़ुबूल क्यों नहीं ये गैर की हुकूमतें,
ये क्या हुआ कि यकबयक सब खामोश हो गए,
यहाँ पे ओस क्यों पड़ी, ये धूल तप गयी है क्यों,
वो जिससे फूल खिल उठे थे, ज़ख्म भर गया है क्यों,
मुझे यकीन है कि फिर यहीं इसी मक़ाम से,
उठेगा हश्र, जी उठेंगे सारे नर्म ख्वाब फिर,
बराबरी का सब जुनूं सिमटके फिर से आएगा,
बिखेर देगी जिंदगी की हीर अपनी ज़ुल्फ़ को,
यहीं से उठेगी सदा कि खुद पे तू यकीन कर,
यहीं से ज़ुल्म की कड़ी पे पहला वार आएगा..."--- गौहर रज़ा

Thursday 12 September 2013

- ' अर्श मलसियानी '(16 )

(1)
जिन्दगी कशमकशे-इश्क के आगाज का नाम,
मौत अंजाम है इसी दर्द के अफसाने का।
 कशमकश = (i) खींचातानी, आपाधापी (ii) असमंजस, संकोच, दुविधा, पसोपेश (iii) संघर्ष, लड़ाई (iv) दौड़-धूप/// आगाज = आरम्भ, शुरूआत
(2)
जिस गम से दिल को राहत हो, उस गम का मुदावा क्या मानी?
जब फितरत तूफानी ठहरी, साहिल की तमन्ना क्या मानी?
मुदावा = दवा, इलाज //. फितरत = आदत, स्वभाव 
(3)
तसन्नो की फुसूंकारी का कुछ ऐसा असर देखा,
कि यह दुनिया मुझे दुनियानुमां मालूम होती हैं।
 .तसन्नो= (i) बनावट, कृत्रिमता (ii) दिखावा, जाहिरदारी (iii) चापलूसी, चाटुकारिता // 
. फुसूंकारी =जादूगरी, माया, तिलिस्म 
(4)
न आने दिया राह पर रहबरों ने,
किये लाख मंजिल ने हमको इशारे।

(5)
किसका कुर्ब,कहाँ की दूरी, अपने आप में गाफिल हैं,
राज अगर पाने का पूछो, खो जाना ही पाना है।
 .कुर्ब = समीपता, नजदीकी, निकटता 
गाफिल = (i) संज्ञाहीन, बेहोश (ii) असावधान, बेखबर (iii) आलसी, काहिल
(6)
यूँ मुतमइन1 आये हैं खाकर जिगर पै चोट,
जैसे वहाँ गये थे इसी मुद्दआ के साथ।
1.मुतमइन - (i) संतुष्ट (ii) आनन्दपूर्वक, खुशहाल
(7)
रहबर या तो रहजन निकले या हैं अपने आप में गुम,
काफले वाले किससे पूछें किस मंजिल तक जाना है।
 2.रहजन - डाकू, लुटेरा 
(8)
वफा पर मिटने वाले जान की परवा नहीं करते,
वह इस बाजार में सूदो-जियो3 देखा नहीं करते।
3.सूदो-जियो - लाभ-हानि 
(9)
वह मर्द नहीं जो डर जाये, माहौल के खूनी खंजर से,
उस हाल में जीना लाजिम है जिस हाल में जीना मुश्किल है।

(10)
गुल भी हैं गुलिस्ताँ भी है मौजूद,
इक फकत आशियाँ नहीं मिलता।
(11)
अपनी निगाहे-शोख़ से छुपिये तो जानिए
महफ़िल में हमसे आपने पर्दा किया तो क्या?

सोचा तो इसमें लाग शिकायत की थी ज़रूर
दर पर किसी ने शुक्र का सज़्दा किया तो क्या?

ऐ शैख़ पी रहा है तो ख़ुश हो के पी इसे
इक नागवार शै को गवारा किया तो क्या?
(12) 
खयाले-तामीर के असीरों,करो न तखरीब की बुराई,
बगौर देखो तो दुश्मनी के करीब ही दोस्ती मिलेगी।
 तखरीब - (i) तामीर का उल्टा, बरबादी, विनाश, विध्वंस (ii) बिगाड़, खराबी
(13)
खुश्क बातों में कहां ऐ शैख कैफे-जिन्दगी,
वह तो पीकर ही मिलेगा जो मजा पीने में है
.शैख - पीर, गुरू, धर्माचार्य
(14)
आने दो इल्तिफात में कुछ और भी कमी,
मानूस हो रहे हैं तुम्हारी जफा से हम।
इल्तिफात - (i) प्यार, लगाव (ii) कृपा, दया, मेहरबानी (iii) तवज्जुह /// मानूस - आसक्त, मुहब्बत करने वाला /// .जफा - सितम, अत्याचार
(15 )
'अर्श' पहले यह शिकायत थी खफा होता है वह,
अब यह शिकवा है कि वह जालिम खफा होता नहीं। 

(16)
इस इन्तिहाए-तर्के-मुहब्बत के बावजूद,
हमने लिया है, नाम तुम्हारा कभी-कभी।
.इन्तिहाए-तर्के-मुहब्बत - मुहब्बत का बिल्कुल परित्याग

Monday 9 September 2013

बृज नारायण चकबस्त (4 )

       बृज नारायण चकबस्त 



1.
एक साग़र भी इनायत न हुआ याद रहे ।
साक़िया जाते हैं, महफ़िल तेरी आबाद रहे ।।



बाग़बाँ दिल से वतन को यह दुआ देता है,
मैं रहूँ या न रहूँ यह चमन आबाद रहे ।



मुझको मिल जाय चहकने के लिए शाख़ मेरी,
कौन कहता है कि गुलशन में न सय्याद रहे ।



बाग़ में लेके जनम हमने असीरी झेली,
हमसे अच्छे रहे जंगल में जो आज़ाद रहे ।
2.
फ़ना का होश आना ज़िंदगी का दर्द-ए-सर जाना
अजल क्या है खुमार-ए-बादा-ए-हस्ती उतर जाना

मुसीबत में बशर के जौहर-ए-मरदाना खुलते हैं
मुबारक बुजदिलों को गर्दिश-ए-किस्मत से डर जाना

बोहत सौदा रहा वाएज़ तुझे नार-ए-जहन्नुम का
मज़ा सोज़-ए-मोहब्बत का भी कुछ ए बेखबर जाना

3.
दर्द-ए-दिल पास-ए-वफ़ा जज़्बा-ए-इमाँ होना
आदमियत यही है और यही इन्साँ होआ 


नौ-गिरफ़्तार-ए-बला तर्ज़-ए-फ़ुग़ाँ क्या जानें 
कोई नाशाद सिखा दे इन्हें नालाँ होना 


रह के दुनिया में यूँ तर्क-ए-हवस की कोशिश 
जिस तरह् अपने ही साये से गुरेज़ाँ होना 


ज़िन्दगी क्या है अनासिर् में ज़हूर्-ए-तर्तीब् 
मौत क्य है इन्हीं इज्ज़ा का परेशाँ होना 


दिल असीरी में भी आज़ाद है आज़ादों का 
वल्वलों के लिये मुम्किन नहीं ज़िन्दा होना 


गुल को पामाल न कर लाल-ओ-गौहर के मालिक 
है इसे तुराह-ए-दस्तार-ए-ग़रीबाँ होना 


है मेरा ज़ब्त-ए-जुनूँ जोश-ए-जुनूँ से बढ़कर
नंग है मेरे लिये चाक गरेबाँ होना 

4.
ख़ाके-हिन्द
 ( हिन्द की मिटटी )

अगली-सी ताज़गी है फूलों में और फलों में

करते हैं रक़्स अब तक ताऊस  जंगलों में
अब तक वही कड़क है बिजली की बादलों में
पस्ती-सी आ गई है पर दिल के हौसलों में



गुल शमअ-ए-अंजुमन है,गो  अंजुमन वही है

हुब्बे-वतन नहीं है, ख़ाके-वतन वही है


बरसों से हो रहा है बरहम समाँ  हमारा

दुनिया से मिट रहा है नामो-निशाँ  हमारा
कुछ कम नहीं अज़ल से ख़्वाबे-गराँ  हमारा
इक लाशे -बे-क़फ़न है हिन्दोस्ताँ हमारा



इल्मो-कमाल-ओ-ईमाँ  बरबाद हो रहे हैं

ऐशो-तरब के बन्दे  ग़फ़लत , में सो रहे हैं


ऐ सूरे-हुब्बे-क़ौमी ! इस ख़्वाब को जगा दे

भूला हुआ फ़साना कानों को फिर सुना दे
मुर्दा तबीयतों की अफ़सुर्दगी मिटा दे
उठते हुए शरारे  इस राख से दिखा दे



हुब्बे-वतन समाए आँखों में नूर  होकर

सर में ख़ुमार हो कर, दिल में सुरूर हो कर
                                                     
है जू-ए-शीर हमको नूरे-सहर  वतन  का
आँखों को रौशनी है जल्वा इस अंजुमन का



है रश्क़े- महर ज़र्र: इस मंज़िले -कुहन का

तुलता है बर्गे-गुल  से काँटा भी इस चमन का
ग़र्दो-ग़ुबार याँ का ख़िलअत है अपने तन को
मरकर भी चाहते हैं ख़ाके-वतन क़फ़न को

  

शब्दार्थ:अगली-सी=उच्च कोटि की, ताउस =मोर , पस्ती सी =निरुत्साहितता,शिथिलता
गुल शमअ-ए-अंजुमन=सभा का दीपक बुझा हुआ, अंजुमन=सभा, हुब्बे-वतन=स्वदेश-प्रेम
बरहम= अस्त-व्यस्त, समाँ =हाल, अज़ल=मृत्यु, ख़्वाबे-गराँ=गहरी नींद, इल्मो-कमाल-ओ-ईमाँ= विद्या,कार्य कुशलता,ईमानदारी, ऐशो-तरब=भोग=विलास, ग़फ़लत=अनभिज्ञता
ऐ सूरे-हुब्बे-क़ौमी= देश प्रेम का नगाड़ा,नरसिंहा बाजा, मृत प्राय:, मुर्दा तबीयतों=कुम्हलाए हुए दिलों, अफ़सुर्दगी=कुम्हलाहट, सर में ख़ुमार=उतरता हुआ नशा,जू-ए-शीर= दूध की नदी
रश्क़े- महर= सूर्य को लज्जित करने वाला,ज़र्र: =धूल-कण, मंज़िले -कुहन=प्राचीन पथ, बर्गे-गुल=फूल की पत्ती से,ख़िलअत=पोशाक, याँ=यहाँ||
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