Friday 27 September 2013

हयात हाशमी

1.
क्यों हमें मौत के पैग़ाम दिए जाते हैं 

ये सज़ा कम तो नहीं है कि जिए जाते हैं

क़ब्र की धूल चिताओं का धुआँ बेमानी 
ज़िन्दगी में ये कफ़न पहन लिए जाते हैं 

उनके क़दमों पे न रख सर कि है ये बेअदबी 
पा-ए-नाज़ुक तो सर-आँखों पे लिए जाते हैं

आबगीनों की तरह दिल हैं ग़रीबों के हयात 
टूट जाते हैं कबी तोड़ दिए जाते हैं



2.
आशियाँ 'बर्क़ आशियाँ' ही रहा 
तिनका-तिनका,धुआँ-धुआँ ही रहा

खून रोते रहे नज़र वाले 
इस ज़मीं पर भी आसमाँ ही रहा

हम सितम का शिकार होते रहे
आप का नाम मेहरबाँ ही रहा

दावत-ए-ग़म क़ुबूल की हमने 
फिर भी एहसान-ए-दोस्ताँ ही रहा

दायरा आदमी की सोचों का 
किफ़्र-ओ-ईमाँ के दरमियाँ ही रहा

पायमाली हयात की क़िस्मत 
दिल गुज़रगाह-ए-महवशाँ ही रहा

No comments:

Post a Comment