Friday 28 March 2014

दुष्यंत कुमार


कुछ भी बन बस कायर मत बन।

ठोकर मार पटक मत माथा

तेरी राह रोकते पाहन

कुछ भी बन बस कायर मत बन।

तेरी रक्षा का न मोल है
पर तेरा मानव अनमोल है
यह मिटता है वह बनता है
अर्पण कर सर्वस्व मनुज को
कर न दुष्ट को आत्म समर्पण
कुछ भी बन बस कायर मत बन।

2.
मरना लगा रहेगा यहाँ जी तो लीजिए

मरना लगा रहेगा यहाँ जी तो लीजिए
ऐसा भी क्या परहेज़, ज़रा—सी तो लीजिए

अब रिन्द बच रहे हैं ज़रा तेज़ रक़्स हो

महफ़िल से उठ लिए हैं नमाज़ी तो लीजिए

पत्तों से चाहते हो बजें साज़ की तरह

पेड़ों से पहले आप उदासी तो लीजिए

ख़ामोश रह के तुमने हमारे सवाल पर

कर दी है शहर भर में मुनादी तो लीजिए

ये रौशनी का दर्द, ये सिरहन ,ये आरज़ू,

ये चीज़ ज़िन्दगी में नहीं थी तो लीजिए

फिरता है कैसे—कैसे सवालों के साथ वो

उस आदमी की जामातलाशी तो लीजिए.


3.
मेरी प्रगति या अगति का
यह मापदण्ड बदलो तुम,
जुए के पत्ते-सा
मैं अभी अनिश्चित हूँ ।
मुझ पर हर ओर से चोटें पड़ रही हैं,
कोपलें उग रही हैं,
पत्तियाँ झड़ रही हैं,
मैं नया बनने के लिए खराद पर चढ़ रहा हूँ,
लड़ता हुआ
नई राह गढ़ता हुआ आगे बढ़ रहा हूँ ।

अगर इस लड़ाई में मेरी साँसें उखड़ गईं,
मेरे बाज़ू टूट गए,
मेरे चरणों में आँधियों के समूह ठहर गए,
मेरे अधरों पर तरंगाकुल संगीत जम गया,
या मेरे माथे पर शर्म की लकीरें खिंच गईं,
तो मुझे पराजित मत मानना,
समझना –
तब और भी बड़े पैमाने पर
मेरे हृदय में असन्तोष उबल रहा होगा,
मेरी उम्मीदों के सैनिकों की पराजित पंक्तियाँ
एक बार और
शक्ति आज़माने को
धूल में खो जाने या कुछ हो जाने को
मचल रही होंगी ।
एक और अवसर की प्रतीक्षा में
मन की क़न्दीलें जल रही होंगी ।

ये जो फफोले तलुओं मे दीख रहे हैं
ये मुझको उकसाते हैं ।
पिण्डलियों की उभरी हुई नसें
मुझ पर व्यंग्य करती हैं ।
मुँह पर पड़ी हुई यौवन की झुर्रियाँ
क़सम देती हैं ।
कुछ हो अब, तय है –
मुझको आशंकाओं पर क़ाबू पाना है,
पत्थरों के सीने में
प्रतिध्वनि जगाते हुए
परिचित उन राहों में एक बार
विजय-गीत गाते हुए जाना है –
जिनमें मैं हार चुका हूँ ।

मेरी प्रगति या अगति का
यह मापदण्ड बदलो तुम
मैं अभी अनिश्चित हूँ ।

                                                   4.
                                       कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं  
गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं 

अब तो इस तालाब का पानी बदल दो
ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं 

वो सलीबों के क़रीब आए तो हमको
क़ायदे-क़ानून समझाने लगे हैं 

एक क़ब्रिस्तान में घर मिल रहा है
जिसमें तहख़ानों में तहख़ाने लगे हैं

मछलियों में खलबली है अब सफ़ीने
उस तरफ़ जाने से क़तराने लगे हैं

मौलवी से डाँट खा कर अहले-मक़तब
फिर उसी आयत को दोहराने लगे हैं





Tuesday 18 March 2014

अवतार सिंह संधू " पाश " 24 ..



1.

मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती

मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती
बैठे-बिठाए पकड़े जाना बुरा तो है
सहमी-सी चुप में जकड़े जाना बुरा तो है

सबसे ख़तरनाक नहीं होता

कपट के शोर में सही होते हुए भी दब जाना बुरा तो है

जुगनुओं की लौ में पढ़ना

मुट्ठियां भींचकर बस वक्‍़त निकाल लेना बुरा तो है

सबसे ख़तरनाक नहीं होता



सबसे ख़तरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना

तड़प का न होना

सब कुछ सहन कर जाना

घर से निकलना काम पर

और काम से लौटकर घर आना

सबसे ख़तरनाक होता है

हमारे सपनों का मर जाना

सबसे ख़तरनाक वो घड़ी होती है
आपकी कलाई पर चलती हुई भी जो
आपकी नज़र में रुकी होती है

सबसे ख़तरनाक वो आंख होती है
जिसकी नज़र दुनिया को मोहब्‍बत से चूमना भूल जाती है
और जो एक घटिया दोहराव के क्रम में खो जाती है
सबसे ख़तरनाक वो गीत होता है
जो मरसिए की तरह पढ़ा जाता है
आतंकित लोगों के दरवाज़ों पर
गुंडों की तरह अकड़ता है
सबसे ख़तरनाक वो चांद होता है
जो हर हत्‍याकांड के बाद
वीरान हुए आंगन में चढ़ता है
लेकिन आपकी आंखों में
मिर्चों की तरह नहीं पड़ता

सबसे ख़तरनाक वो दिशा होती है
जिसमें आत्‍मा का सूरज डूब जाए
और जिसकी मुर्दा धूप का कोई टुकड़ा
आपके जिस्‍म के पूरब में चुभ जाए

मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती


ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती ।


2.



मैं पूछता हूँ आसमान में उड़ते हुए सूरज से


मैं पूछता हूँ आसमान में उड़ते हुए सूरज से
क्या वक़्त इसी का नाम है
कि घटनाए कुचलती हुई चली जाए
मस्त हाथी की तरह
एक समूचे मनुष्य की चेतना को?
कि हर सवाल
केवल परिश्रम करते देह की गलती ही हो
क्यों सुना दिया जाता है हर बार
पुराना लतीफा
क्यों कहा जाता है हम जीते है
ज़रा सोचें -
कि हममे से कितनो का नाता है
ज़िन्दगी जैसी किसी चीज़ के साथ!
रब्ब की वह कैसी रहमत है
जो गेहू गोड़ते फटे हाथो पर
और मंडी के बीच के तख्तपोश पर फैले मांस के
उस पिलपिले ढेर पर
एक ही समय होती है ?
आखिर क्यों
बैलों की घंटियों
पानी निकालते इंज़नो के शोर में
घिरे हुए चेहरों पर जम गयी है
एक चीखती ख़ामोशी ?
कौन खा जाता है तलकर
टोके पर चारा लगा रहे
कुतरे हुए अरमानो वाले पट्ठे की मछलियों?
क्यों गिड़गिडाता है
मेरे गाँव का किसान
एक मामूली पुलिस वाले के सामने ?
क्यों कुचले जा रहे आदमी के चीखने को
हर बार कविता कह दिया जाता है ?
मैं पूछता हूँ आसमान में उड़ते हुए सूरज से



3.

भारत-

मेरे सम्मान का सबसे महान शब्द

जहां कहीं भी प्रयोग किया जाये

बाकी सभी शब्द अर्थहीन हो जाते हैं

इस शब्द के अर्थ

खेतों के उन बेटों में हैं

जो आज भी वृक्षों की परछाइयों से

वक्त मापते हैं

उनके पास, सिवाय पेट के, कोई समस्या नहीं
और वह भूख लगने पर
अपने अंग भी चबा सकते हैं
उनके लिए जिंदगी एक परंपरा है
और मौत के अर्थ हैं मुक्ति
जब भी कोई समूचे भारत की
राष्ट्रीय एकता की बात करता है
तो मेरा दिल चाहता है-
उसकी टोपी हवा में उछाल दूं
उसे बताऊं
कि भारत के अर्थ
किसी दुष्यंत से संबंधित नहीं
वरन खेतों में दायर हैं
जहां अन्न उगता है
जहां सेंध लगती है…अनुवाद-- चमनलाल 


4.


बेदखली के लिए विनयपत्र



मैंने उम्र भर उसके खिलाफ सोचा और लिखा है

अगर उसके अफसोस में पूरा देश ही शामिल है

तो इस देश से मेरा नाम खारिज कर दें
मैं खूब जानता हूं नीले सागरों तक फैले हुए
इस खेतों, खानों,भट्ठों के भारत को
वह ठीक इसी का साधारण-सा एक कोना था
जहां पहली बार
जब दिहाड़ी मजदूर पर उठा थप्पड़ मरोड़ा गया
किसी के खुरदरे बेनाम हाथों में
ठीक वही वक्त था
जब इस कत्ल की साजिश रची गयी
कोई भी पुलिस नहीं खोज पायेगी इस साजिश की जगह
क्योंकि ट्यूबें सिर्फ राजधानी में जगमगाती हैं
और खेतों, खानों व भट्ठों का भारत बहुत अंधेरा है

और ठीक इसी सर्द अंधेरे में होश संभालने पर
जीने के साथ-साथ
पहली बार जब इस जीवन के बारे में सोचना शुरू किया
मैंने खुद को इस कत्ल की साजिश में शामिल पाया
जब भी वीभत्स शोर का खुरा खोज-मिटा कर
मैंने टर्राते हुए टिड्डे को ढूंढ़ना चाहा
अपनी पुरी दुनिया को शामिल देखा है

मैंने हमेशा ही उसे कत्ल किया है
हर परिचित की छाती में ढूंढ़ कर
अगर उसके कातिलों को इस तरह सड़कों पर देखा जाना है
तो मुझे भी मिले बनती सजा
मैं नही चाहता कि सिर्फ इस आधार पर बचता रहूं
कि भजनलाल बिशनोई को मेरा पता मालूम नहीं

इसका जो भी नाम है-गुंडों की सल्तनत का
मैं इसका नागरिक होने पर थूकता हूं
मैं उस पायलट की
चालाक आंखों में चुभता भारत हूं
हां मैं भारत हूं चुभता हुआ उसकी आंखों में
अगर उसका अपना कोई खानदानी भारत है
तो मेरा नाम उसमें से अभी खारिज कर दो.-- अनुवाद-- (चमन लाल )

5.
लड़े हुए वर्तमान के रू-ब-रू

मैं आजकल अखबारों से बहुत डरता हूं

जरूर उनमें कहीं-न-कहीं

कुछ न होने की खबर छपी होगी

शायद आप जानते नहीं, या जानते भी हों

कि कितना भयानक है कहीं भी कुछ न होना
लगातार नजरों का हांफते जाना
और चीजों का चुपचाप लेटे रहना-किसी ठंडी औरत की तरह

मुझे तो आजकल चौपालों में होती गपशप भी ऐसी लगती है

जैसे किसी झूमना चाहते वृक्ष को

सांप गुंजलक मार कर सो रहा हो

मुझे डर है खाली कुरसियों की तरह कम हुई दीखती

यह दुनिया हमारे बारे में क्या उलटा-पुलटा सोचती होगी
अफसोस है कि सदियां बीत गयी हैं
रोटी, काम और श्मशान अब भी समझते होंगे
कि हम इनकी खातिर ही हैं…
मैं उलझन में हूं कि कैसे समझाऊं
लजीले सवेरों को
संगठित रातों और शरीफ शामों को
हम कोई इनसे सलामी लेने नहीं आये
और साथ-को-साथ जैसा कुछ कहां है
जो आलिंगन के लिए खुली बांहों से
बस हाथ भर की दूरी पर तड़पता रहे
आजकल हादसे भी मिलते हैं तो ऐसे
जैसे कोई हांफता हुआ बूढ़ा
वेश्या की सीढ़ी चढ़ रहा हो
कहीं कुछ इस तरह का क्यों नहीं है
जैसे किसी पहली को कोई मिलता है

भला कहां तक जायेगा

सींगोंवाली कब्र के आगे दौड़ता हुआ

महात्मा लोगों का वरदान दिया हुआ यह मुल्क 

आखिर कब लौटेंगे, घटनाओं से गूंजते हुए घरों में

हम जीने के शोर से जलावतन हुए लोग
और बैठ कर अलावों पर कब सुनेंगे, आग के मिजाज की बातें
किसी-न-किसी दिन जरूर अपने चुबंनों से
हम मौसम के गालों पर चटाख डालेंगे
और सारी-की-सारी धरती अजीबो-गरीब अखबार बनेगी
जिसमें बहुत कुछ होने की खबरें
छपा करेंगी किसी-न-किसी दिन.

6.
अपनी असुरक्षा से

यदि देश की सुरक्षा यही होती है

कि बिना जमीर होना जिंदगी के लिए शर्त बन जाये

आंख की पुतली में हां के सिवाय कोई भी शब्द

अश्लील हो

और मन बदकार पलों के सामने दंडवत झुका रहे
तो हमें देश की सुरक्षा से खतरा है.

हम तो देश को समझे थे घर-जैसी पवित्र चीज

जिसमें उमस नहीं होती

आदमी बरसते मेंह की गूंज की तरह गलियों में बहता है

गेहूं की बालियों की तरह खेतों में झूमता है

और आसमान की विशालता को अर्थ देता है
हम तो देश को समझे थे आलिंगन-जैसे एक एहसास का नाम
हम तो देश को समझते थे काम-जैसा कोई नशा
हम तो देश को समझते थे कुरबानी-सी वफा
लेकिन गर देश
आत्मा की बेगार का कोई कारखाना है
गर देश उल्लू बनने की प्रयोगशाला है
तो हमें उससे खतरा है

गर देश का अमन ऐसा होता है

कि कर्ज के पहाड़ों से फिसलते पत्थरों की तरह

टूटता रहे अस्तित्व हमारा

और तनख्वाहों के मुंह पर थूकती रहे

कीमतों की बेशर्म हंसी

कि अपने रक्त में नहाना ही तीर्थ का पुण्य हो

तो हमें अमन से खतरा है

गर देश की सुरक्षा को कुचल कर अमन को रंग चढ़ेगा

कि वीरता बस सरहदों पर मर कर परवान चढ़ेगी

कला का फूल बस राजा की खिड़की में ही खिलेगा

अक्ल, हुक्म के कुएं पर रहट की तरह ही धरती सींचेगी

तो हमें देश की सुरक्षा से खतरा है.

7.
हमारे समयों में

यह सब कुछ हमारे ही समयों में होना था

कि समय ने रूक जाना था थके हुए युद्ध की तरह

और कच्ची दीवारों पर लटकते कैलेंडरों ने

प्रधानमंत्री की फोटो बन कर रह जाना था

धूप से तिड़की हुई दीवारों के परखचों

और धुएं को तरसते चूल्हों ने

हमारे ही समयों का गीत बनना था

गरीब की बेटी की तरह बढ़ रहा

इस देश के सम्मान का पौधा

हमारे रोज घटते कद के कंधों पर ही उगना था

शानदार एटमी तजर्बे की मिट्टी

हमारी आत्मा में फैले हुए रेगिस्तान से उड़नी थी

मेरे-आपके दिलों की सड़क के मस्तक पर जमना था

रोटी मांगने आये अध्यापकों के मस्तक की नसों का लहू

दशहरे के मैदान में

गुम हुई सीता नहीं, बस तेल का टिन मांगते हुए

रावण हमारे ही बूढ़ों को बनना था
अपमान वक्त का हमारे ही समयों में होना था
हिटलर की बेटी ने जिंदगी के खेतों की मां बन कर
खुद हिटलर का डरौना
हमारे ही मस्तकों में गड़ाना था

यह शर्मनाक हादसा हमारे ही साथ होना था

कि दुनिया के सबसे पवित्र शब्दों ने

बन जाना था सिंहासन की खड़ाऊं

मार्क्स का सिंह जैसा सिर

दिल्ली की भूल-भुलैयों में मिमियाता फिरता
हमें ही देखना था
मेरे यारो, यह कुफ्र हमारे ही समयों में होना था

बहुत दफा, पक्के पुलों पर

लड़ाइयां हुईं

लेकिन जुल्म की शमशीर के

घूंघट न मुड़ सके

मेरे यारो, अकेले जीने की ख्वाहिश कोई पीतल का छल्ला है
हर पल जो घिस रहा
न इसने यार की निशानी बनना है
न मुश्किल वक्त में रकम बनना है

मेरे यारो, हमारे वक्त का एहसास

बस इतना ही न रह जाये

कि हम धीमे-धीमे मरने को ही

जीना समझ बैठे थे

कि समय हमारी घड़ियों से नहीं
हडि्डयों के खुरने से मापे गये

यह गौरव हमारे ही समयों को मिलेगा

कि उन्होंने नफरत निथार ली

गुजरते गंदलाये समुद्रों से

कि उन्होंने बींध दिया पिलपिली मुहब्बत का तेंदुआ

और वह तैर कर जा पहुंचे
हुस्न की दहलीजों पर

यह गौरव हमारे ही समयों का होगा

यह गौरव हमारे ही समयों का होना है.


8.
तुम्हारे बगैर मैं होता ही नहीं
तुम्हारे बगैर मैं बहुत खचाखच रहता हूं
यह दुनिया सारी धक्कम पेल सहित
बेघर पाश की दहलीजें लांघ कर आती-जाती है
तुम्हारे बगैर मैं पूरे का पूरा तूफान होता हूं
ज्वारभाटा और भूकंप होता हूं
तुम्हारे बगैर
मुझे रोज मिलने आते हैं आईंस्टाइन और लेनिन
मेरे साथ बहुत बातें करते हैं
जिनमें तुम्हारा बिलकुल ही जिक्र नहीं होता
मसलन: समय एक ऐसा परिंदा है
जो गांव और तहसील के बीच उड़ता रहता है
और कभी नहीं थकता
सितारे जुल्फों में गुंथे जाते
या जुल्फें सितारों में-एक ही बात है
मसलन: आदमी का एक और नाम मेनशेविक है
और आदमी की असलियत हर सांस के बीच को खोजना है
लेकिन हाय-हाय!
बीच का रास्ता कहीं नहीं होता
वैसे इन सारी बातों से तुम्हारा जिक्र गायब रहता है।

तुम्हारे बगैर
मेरे पर्स में हमेशा ही हिटलर का चित्र परेड करता है
उस चित्र की पृष्ठभूमि में
अपने गांव क‍ी पूरे वीराने और बंजर की पटवार होती है
जिसमें मेरे द्वारा निक्की के ब्याह में गिरवी रखी जमीन के सिवा
बची जमीन भी सिर्फ जर्मनों के लिए ही होती है।

तुम्हारे बगैर, मैं सिद्धार्थ नहीं, बुद्ध होता हूं
और अपना राहुल
जिसे कभी जन्म नहीं देना
कपिलवस्तु का उत्तराधिकारी नहीं
एक भिक्षु होता है।

तुम्हारे बगैर मेरे घर का फर्श-सेज नहीं
ईंटों का एक समाज होता है
तुम्हारे बगैर सरपंच और उसके गुर्गे
हमारी गुप्त डाक के भेदिए नहीं
श्रीमान बीडीओ के कर्मचारी होते हैं
तुम्हारे बगैर अवतार सिंह संधू महज पाश
और पाश के सिवाय कुछ नहीं होता

तुम्हारे बगैर धरती का गुरुत्व
भुगत रही दुनिया की तकदीर होती है
या मेरे जिस्म को खरोंचकर गुजरते अ-हादसे
मेरे भविष्य होते हैं
लेकिन किंदर! जलता जीवन माथे लगता है
तुम्हारे बगैर मैं होता ही नहीं। 


9.


अब विदा लेता हूं
अब विदा लेता हूं
मेरी दोस्त, मैं अब विदा लेता हूं
मैंने एक कविता लिखनी चाही थी
सारी उम्र जिसे तुम पढ़ती रह सकतीं
उस कविता में
महकते हुए धनिए का जिक्र होना था
ईख की सरसराहट का जिक्र होना था
उस कविता में वृक्षों से टपकती ओस
और बाल्टी में दुहे दूध पर गाती झाग का जिक्र होना था
और जो भी कुछ
मैंने तुम्हारे जिस्म में देखा
उस सब कुछ का जिक्र होना था
उस कविता में मेरे हाथों की सख्ती को मुस्कुराना था
मेरी जांघों की मछलियों ने तैरना था
और मेरी छाती के बालों की नरम शॉल में से
स्निग्धता की लपटें उठनी थीं
उस कविता में
तेरे लिए
मेरे लिए
और जिन्दगी के सभी रिश्तों के लिए बहुत कुछ होना था मेरी दोस्त
लेकिन बहुत ही बेस्वाद है
दुनिया के इस उलझे हुए नक्शे से निपटना
और यदि मैं लिख भी लेता
शगुनों से भरी वह कविता
तो उसे वैसे ही दम तोड़ देना था
तुम्हें और मुझे छाती पर बिलखते छोड़कर
मेरी दोस्त, कविता बहुत ही निसत्व हो गई है
जबकि हथियारों के नाखून बुरी तरह बढ़ आए हैं
और अब हर तरह की कविता से पहले
हथियारों के खिलाफ युद्ध करना ज़रूरी हो गया है
युद्ध में
हर चीज़ को बहुत आसानी से समझ लिया जाता है
अपना या दुश्मन का नाम लिखने की तरह
और इस स्थिति में
मेरी तरफ चुंबन के लिए बढ़े होंटों की गोलाई को
धरती के आकार की उपमा देना
या तेरी कमर के लहरने की
समुद्र के सांस लेने से तुलना करना
बड़ा मज़ाक-सा लगता था
सो मैंने ऐसा कुछ नहीं किया
तुम्हें
मेरे आंगन में मेरा बच्चा खिला सकने की तुम्हारी ख्वाहिश को
और युद्ध के समूचेपन को
एक ही कतार में खड़ा करना मेरे लिए संभव नहीं हुआ
और अब मैं विदा लेता हूं
मेरी दोस्त, हम याद रखेंगे
कि दिन में लोहार की भट्टी की तरह तपने वाले
अपने गांव के टीले
रात को फूलों की तरह महक उठते हैं
और चांदनी में पगे हुई ईख के सूखे पत्तों के ढेरों पर लेट कर
स्वर्ग को गाली देना, बहुत संगीतमय होता है
हां, यह हमें याद रखना होगा क्योंकि
जब दिल की जेबों में कुछ नहीं होता
याद करना बहुत ही अच्छा लगता है
मैं इस विदाई के पल शुक्रिया करना चाहता हूं
उन सभी हसीन चीज़ों का
जो हमारे मिलन पर तंबू की तरह तनती रहीं
और उन आम जगहों का
जो हमारे मिलने से हसीन हो गई
मैं शुक्रिया करता हूं
अपने सिर पर ठहर जाने वाली
तेरी तरह हल्की और गीतों भरी हवा का
जो मेरा दिल लगाए रखती थी तेरे इंतज़ार में
रास्ते पर उगी हुई रेशमी घास का
जो तुम्हारी लरजती चाल के सामने हमेशा बिछ जाता था
टींडों से उतरी कपास का
जिसने कभी भी कोई उज़्र न किया
और हमेशा मुस्कराकर हमारे लिए सेज बन गई
गन्नों पर तैनात पिदि्दयों का
जिन्होंने आने-जाने वालों की भनक रखी
जवान हुए गेंहू की बालियों का
जो हम बैठे हुए न सही, लेटे हुए तो ढंकती रही
मैं शुक्रगुजार हूं, सरसों के नन्हें फूलों का
जिन्होंने कई बार मुझे अवसर दिया
तेरे केशों से पराग केसर झाड़ने का
मैं आदमी हूं, बहुत कुछ छोटा-छोटा जोड़कर बना हूं
और उन सभी चीज़ों के लिए
जिन्होंने मुझे बिखर जाने से बचाए रखा
मेरे पास शुक्राना है
मैं शुक्रिया करना चाहता हूं
प्यार करना बहुत ही सहज है
जैसे कि जुल्म को झेलते हुए खुद को लड़ाई के लिए तैयार करना
या जैसे गुप्तवास में लगी गोली से
किसी गुफा में पड़े रहकर
जख्म के भरने के दिन की कोई कल्पना करे
प्यार करना
और लड़ सकना
जीने पर ईमान ले आना मेरी दोस्त, यही होता है
धूप की तरह धरती पर खिल जाना
और फिर आलिंगन में सिमट जाना
बारूद की तरह भड़क उठना
और चारों दिशाओं में गूंज जाना -
जीने का यही सलीका होता है
प्यार करना और जीना उन्हे कभी नहीं आएगा
जिन्हें जिन्दगी ने बनिए बना दिया
जिस्म का रिश्ता समझ सकना,
खुशी और नफरत में कभी भी लकीर न खींचना,
जिन्दगी के फैले हुए आकार पर फि़दा होना,
सहम को चीरकर मिलना और विदा होना,
बड़ी शूरवीरता का काम होता है मेरी दोस्त,
मैं अब विदा लेता हूं
जीने का यही सलीका होता है
प्यार करना और जीना उन्हें कभी आएगा नही
जिन्हें जिन्दगी ने हिसाबी बना दिया
ख़ुशी और नफरत में कभी लीक ना खींचना
जिन्दगी के फैले हुए आकार पर फिदा होना
सहम को चीर कर मिलना और विदा होना
बहुत बहादुरी का काम होता है मेरी दोस्त
मैं अब विदा होता हूं
तू भूल जाना
मैंने तुम्हें किस तरह पलकों में पाल कर जवान किया
कि मेरी नजरों ने क्या कुछ नहीं किया
तेरे नक्शों की धार बांधने में
कि मेरे चुंबनों ने
कितना खूबसूरत कर दिया तेरा चेहरा कि मेरे आलिंगनों ने
तेरा मोम जैसा बदन कैसे सांचे में ढाला
तू यह सभी भूल जाना मेरी दोस्त
सिवा इसके कि मुझे जीने की बहुत इच्छा थी
कि मैं गले तक जिन्दगी में डूबना चाहता था
मेरे भी हिस्से का जी लेना
मेरी दोस्त मेरे भी हिस्से का जी लेना।

10.
हम लडेंगे साथी

हम लड़ेंगे साथी, उदास मौसम के लिए

हम लड़ेंगे साथी, गुलाम इच्छाओं के लिए

हम चुनेंगे साथी, जिंदगी के टुकड़े

हथौड़ा अब भी चलता है

उदास निहाई पर हल की लीकें
अब भी बनती हैं, चीखती धरती पर
यह काम हमारा नहीं बनता, सवाल नाचता है
सवाल के कंधों पर चढ़ कर
हम लड़ेंगे साथी.

कत्ल हुए जज्बात की कसम खाकर

बुझी हुई नजरों की कसम खाकर

हाथों पर पड़ी गांठों की कसम खाकर

हम लड़ेंगे साथी

हम लड़ेंगे तब तक

कि बीरू बकरिहा जब तक

बकरियों का पेशाब पीता है

खिले हुए सरसों के फूलों को

बीजनेवाले जब तक खुद नहीं सूंघते
कि सूजी आंखोंवाली
गांव की अध्यापिका का पति जब तक
जंग से लौट नहीं आता
जब तक पुलिस के सिपाही
अपने ही भाइयों का गला दबाने के लिए विवश हैं
कि बाबू दफ्तरों के
जब तक रक्त से अक्षर लिखते हैं…
हम लड़ेंगे जब तक
दुनिया में लड़ने की जरूरत बाकी है…

जब बंदूक न हुई, तब तलवार होगी

जब तलवार न हुई, लड़ने की लगन होगी

लड़ने का ढंग न हुआ, लड़ने की जरूरत होगी

और हम लड़ेंगे साथी…

हम लड़ेंगे
कि लड़ने के बगैर कुछ भी नहीं मिलता
हम लड़ेंगे
कि अभी तक लड़े क्यों न
हम लड़ेंगे
अपनी सजा कबूलने के लिए
लड़ते हुए मर जानेवालों
की याद जिंदा रखने के लिए
हम लड़ेंगे साथी…
11.
तीसरा महायुद्ध

कचहरियों के बाहर खड़े

बूढ़े किसान की आंखों में मोतियाबिंद उतर आयेगा

शाम तक हो जायेगी सफेद

रोजगार दफ्तर के आंगन में थक रही ताजी उगी दाढ़ी

बहुत जल्द भूल जायेगा पुराने ढाबे का नया नौकर
अपनी मां के हमेशा ही धुत्त मैले रहनेवाले
पोने की मीठी महक
ढूंढ़ता रहेगा किनारे सड़क के वह निराश ज्योतिषी
अपने ही हाथ से मिटी हुई भाग्य रेखा
कार तले कुचले गये और पेंशन लेने आये
पुराने फौजी की टूटी हुई साइकिल
तीसरा महायुद्ध लड़ने की सोचेगी

तीसरा महायुद्ध

जो नहीं लड़ा जायेगा अब

जर्मनी और भा़डे के टट्टुओं के बीच

तीसरा महायुद्ध सीनों में खुर रही

जीने की बादशाहत लड़ेगी
तीसरा महायुद्ध गोबर से लिपी
छतों की सादगी लड़ेगी
तीसरा महायुद्ध कमीज से धुल न सकनेवाले
बरोजे की छींटे लड़ेंगीं
तीसरा महायुद्ध
पेशाब से भरी रूई में लिपटी कटी हुई उंगली लड़ेगी

जुल्म के चेहरे पर चमकती

बनी-संवरी नजाकत के खिलाफ

धरती को कैद करना चाहते चाबी के छल्ले के खिलाफ

तीसरा महायुद्ध

कभी न खुलनेवाली मुट्ठी के खिलाफ लड़ा जायेगा
कोमल शामों के बदन पर रेंगनेवाले
सेह के कांटों के खिलाफ लड़ा जायेगा
तीसरा महायुद्ध उस दहशत के खिलाफ लड़ा जायेगा
जिसका अक्स दंदियां निकालती मेरी बेटी की आंखों में है,
तीसरा महायुद्ध
किसी फटी-सी जेब में मसल दिये गये
एक छोटे से संसार के लिए लड़ा जायेगा.(चमनलाल )
12.
मेरी महबूब, तुम्हें भी गिला होगा मुहब्बत पर
मेरी खातिर तुम्हारें बेकाबू चावों का क्या हुआ
तुमने इच्छाओं की सुई से उकेरी थी रूमालों पर
उन धूपों का क्या बना, उन छायाओं का क्या हुआ
कवि हो कर कैसे बिना पढ़े ही छोड़ जाता हूँ
तेरे नयनों की लिखी हुई इकरार की कविता
तुम्हारें लिए सुरक्षित होठों पर पथरा गई है री
बड़ी कड़वी, बड़ी नीरस, मेरे रोज़गार की कविता
मेरी पूजा, मेरा ईमान, आज दोनों ही ज़ख़्मी है
तुम्हारी हँसी और अलसी के फूलों पर नाचती हँसी
मुझे जब ले कर चले जाते है, तुम्हारी खुशी के दुश्मन
बहुत बेशर्म हो कर खनकती है हथकड़ियों की हँसी
तुम्हारा दर ही है, जिस जगह झुक जाता है सिर मेरा
मैं जेल के दर पर सात बार थूककर गुजरता हूँ
मेरे गाँव में ही सत्व है कि मैं बिंध-बिंध कर जीता हूँ
मैं हाकिम के सामने से, शेर की दहाड़ कर गुजरता हूँ
(उसके नाम कविता का एक अंश)
-अवतार सिंह संधू "पाश"

13.
तुम्हारे रुक रुक कर जाते पावों की सौगंध बापू
तुम्हारे रुक रुक कर जाते पावों की सौगंध बापू
तुम्हें खाने को आते रातों के जाड़ों का हिसाब
मैं लेकर दूंगा
तुम मेरी फीस की चिंता न करना
मैं अब कौटिल्य से शास्त्र लिखने के लिये
विद्यालय नहीं जाया करूंगा
मैं अब मार्शल और स्मिथ से
बहिन बिंदरों की शादी की चिंता की तरह
बढ़ती कीमतों का हिसाब पूछने नहीं जाऊँगा
बापू तुम यों ही हड्डियों में चिंता न जमाओं
मैं आज पटवारी के पैमाने से नहीं
पूरी उम्र भत्ता ले जा रही मां के पैरों की बिवाईयों से
अपने खेत मापूंगा
मैं आज संदूक के खाली ही रहे खाने की
भायँ - भायँ से तुम्हारा आज तक का दिया लगान गिनूँगा
तुम्हारे रुक रुक कर जाते पावों की सौगंध बापू
मैं आज शमशान भूमि में जा कर
अपने दादा और दादा के दादा के साथ गुप्त बैठके करूंगा
मैं अपने पुरखों से गुफ्तगू कर जान लूँगा
यह सब कुछ किस तरह हुआ
कि जब दुकानों जमा दुकानों का जोड़ मंडी बन गया
यह सब कुछ किस तरह हुआ
कि मंडी जमा तहसील का जोड़ शहर बन गया
मैं रहस्य जानूंगा
मंडी और तहसील बाँझ मैदानों में
कैसे उग आया था थाने का पेड़
बापू तुम मेरी फीस की चिंता न करना
मैं कॉलेज के क्लर्कों के सामने
अब रीं रीं नहीं करूंगा
मैं लेक्चर कम होने की सफाई देने के लिये
अब कभी बेबे या बिंदरों को
झूठा बुखार न चढ़ाया करूंगा
मैं झूठमूठ तुम्हें वृक्ष काटने को गिराकर
तुम्हारी टांग टूटने जैसा कोई बदशगन सा बहाना न करूंगा
मैं अब अंबेदकर के फंडामेंटल राइट्स
सचमुच के न समझूंगा
मैं तुम्हारे पीले चहरे पर
किसी बेजमीर टाउट की मुस्कराहट जैसे सफ़ेद केशों की
शोकमयी नज़रों को न देख सकूंगा
कभी भी उस संजय गांधी को पकड़ कर
मैं तुम्हारे कदमो में पटक दूंगा
मैं उसकी उटपटांग बड़को को
तुम्हारें ईश्वर को निकाली गाली के सामने पटक दूंगा
बापू तुम गम न करना
मैं उस नौजवान हिप्पी को तुम्हारें सामने पूछूंगा
मेरे बचपन की अगली उम्र का क्रम
द्वापर युग की तरह आगे पीछे किस बदमाश ने किया है
मैं उन्हें बताउँगा
निः सत्व फतवों से चीज़ों को पुराना करते जाना
बेगाने बेटों की मांओं के उलटे सीधे नाम रखने
सिर्फ लोरी के लोरी के संगीत में ही सुरक्षित होता हैं
मैं उससे कहूंगा
ममता की लोरी से ज़रा बाहर तो निकलो
तुम्हें पता चले
बाकी का पूरा देश बूढ़ा नहीं है ....

14.
संविधान 

संविधान

यह पुस्‍तक मर चुकी है

इसे मत पढ़ो

इसके लफ्जों में मौत की ठण्‍डक है

और एक-एक पन्‍ना
जिंदगी के अंतिम पल जैसा भयानक
यह पुस्‍तक जब बनी थी
तो मैं एक पशु था
सोया हुआ पशु
और जब मैं जागा
तो मेरे इंसान बनने तक
ये पुस्‍तक मर चुकी थी
अब अगर इस पुस्‍तक को पढ़ोगे
तो पशु बन जाओगे
सोये हुए पशु।




15.

 हम चाहते है अपनी हथेली पर कुछ इस तरह का सच

जैसे गुड की चाशनी में कण होता है

जैसे हुक्के में निकोटिन होती है

जैसे मिलन के समय महबूब की होठों पर

कोई मलाई जैसी चीज़ होती है 

 (कविता "प्रतिबद्धता" का अंश)

16.

 मैं घास हूँ 
मैं आपके हर किए-धरे पर उग आऊंगा
बम फेंक दो चाहे विश्‍वविद्यालय पर
बना दो होस्‍टल को मलबे का ढेर
सुहागा फिरा दो भले ही हमारी झोपड़ियों पर
मुझे क्‍या करोगे
मैं तो घास हूँ हर चीज़ पर उग आऊंगा
बंगे को ढेर कर दो
संगरूर मिटा डालो
धूल में मिला दो लुधियाना ज़िला
मेरी हरियाली अपना काम करेगी...
दो साल... दस साल बाद
सवारियाँ फिर किसी कंडक्‍टर से पूछेंगी
यह कौन-सी जगह है
मुझे बरनाला उतार देना
जहाँ हरे घास का जंगल है
मैं घास हूँ, मैं अपना काम करूंगा
मैं आपके हर किए-धरे पर उग आऊंगा।



17.

 मुझे पता है 


प्रतिमानों की रेतीली दीवार से 

माँ-बाप की झिड़कियों से 

तुम्हारे गले लग कर 

मैं रोऊँगा नहीं,

संवेदना के कोहरे में 

तुम्हारे आलिंगन में याद ऐसे फ़ैल जाती है 

कि पढ़ी नहीं जाती 
अपने खिलाफ छपती ख़बरें 
मुझे पता है कि चाहे अब नहीं चलते 
सुराखवाले गोल पैसे 
लेकिन पीछे छोड़ गए है वे 
अपनी साजिश 
कि आदमी अभी भी उतना है 
जितना किसी को गोल पैसे के सुराख से नज़र आता है। 


17.

 संसद 

ज़हरीली शहद की मक्खी की ओर उंगली न करो 
जिसे आप छत्ता समझते है 
वहां जनता के प्रतिनिधि रहते है।

18.

आज इन्होने दुश्मनों और दोस्तों के बीच खींची 

लकीर को भी गिरा दिया है 

लेनिन की तस्वीर उठाकर चले 

इन ग़ांधी की बरसी मनानेवालों ने  


कोठियों में सोफों पर बैठ कर 

क्रांति का ज़िक्र करके 

कितना पवित्र मजाक किया है 



जब पत्थर के गांधी की जरा सी धुनाई पर 

प्रोटेस्ट, भूख-हड़तालें, जाँच-मांगें हो सकती है 

तो जीवित गाँधियों को भी उकसाया जा सकता है 

कि वे देश-भर की भावनाएँ उलझाये रहे 

और चुन-चुनकर भगतसिंह को 


क़त्ल करवा दिया जाये …………

19.

द्रोणाचार्य के नाम 
मेरे गुरुदेव!


उसी वक़्त यदि आप एक भील बच्चा समझ 

मेरा अंगूठा काट देते 

तो कहानी दूसरी थी............. 




लेकिन एन.सी.सी. में 

बंदूक उठाने का नुक्ता तो आपने खुद बताया था

कि अपने देश पर 

जब कोई मुसीबत आन पड़े 

दुश्मन को बना कर 
टार्गेट कैसे 
घोड़ा दबा देना है ………




अब जब देश पर मुसीबत आ पड़ी 

मेरे गुरुदेव!

खुद ही आप दुर्योधन के संग जा मिले हो 

लेकिन अब आपका चक्रव्यूह 

कहीं भी कारगर न होगा 
और पहले वार में ही 
हर घनचक्कर का 
चौरासी का चक्कर कट जाएगा 
हाँ, यदि छोटी उम्र में ही आप एक भील बच्चा समझ 
मेरा अंगूठा काट देते 



तो कहानी दूसरी थी



20 .

वफा
बरसों तड़पकर तुम्हारे लिए
मैं भूल गया हूं कब से, अपनी आवाज की पहचान
भाषा जो मैंने सीखी थी, मनुष्य जैसा लगने के लिए
मैं उसके सारे अक्षर जोड़कर भी
मुश्किल से तुम्हारा नाम ही बन सका
मेरे लिए वर्ण अपनी ध्वनि खो बैठे हैं बहुत देर से
मैं अब लिखता नहीं-तुम्हारे धूपिया अंगों की सिर्फ
परछाईं पकड़ता हूं।

कभी तुमने देखा है-लकीरों को बगावत करते?

कोई भी अक्षर मेरे हाथों से
तुम्हारी तस्वीर बन कर ही निकलता है
तुम मुझे हासिल हो(लेकिन) कदम भर की दूरी से
शायद यह कदम मेरी उम्र से ही नह‍ीं
मेरे कई जन्मों से भी बड़ा है
यह कदम फैलते हुए लगातार
रोक लेगा मेरी पूरी धरती को
यह कदम माप लेगा मृत आकाशों को
तुम देश में ही रहना
मैं कभी लौटूंगा विजेता की तरह तुम्हारे आंगन में
इस कदम या मुझे
जरूर दोनों में से किसी को कत्ल होना होगा।


21.
सपने
हर किसी को नहीं आते
बेजान बारूद के कणों में
सोई आग के सपने नहीं आते
बदी के लिए उठी हुयी
हथेली को पसीने नहीं आते
शेल्फों में पड़े
इतिहास के ग्रंथो को सपने नहीं आते
सपनों के लिए लाज़मी है
झेलनेवाले दिलों का होना
नींद की नज़र होनी लाज़मी है
सपने इसलिए हर किसी को नहीं आते 
22.
आधी रात में 

आधी रात में
मेरी कंपकंपी सात रजाइयों में भी न रुकी
सतलुज मेरे बिस्तर पर उतर आया
सातों रजाइयां गीली
बुखार एक सौ छः, एक सौ सात
हर सांस पसीना पसीना
युग को पलटने में लगे लोग
बुखार से नहीं मरते
मृत्यु के कंधों पर जानेवालों के लिये
मृत्यु के बाद जिंदगी का सफ़र शुरू होता है
मेरे लिये जिस सूर्य की धूप वर्जित है
मैं उसकी छाया से भी इनकार कर दूंगा
मैं हर खाली सुराही तोड़ दूंगा
मेरा खून और पसीना मिट्टी में मिल गया है
मैं मिट्टी में दब जाने पर भी उग आऊंगा

23 .

क्या-क्या नहीं है मेरे पास
शाम की रिमझिम 
नूर में चमकती ज़िंदगी
लेकिन मैं हूं
घिरा हुआ अपनों से
क्या झपट लेगा कोई मुझ से
रात में क्या किसी अनजान में
अंधकार में क़ैद कर देंगे
मसल देंगे क्या
जीवन से जीवन
अपनों में से मुझ को क्या कर देंगे अलहदा
और अपनों में से ही मुझे बाहर छिटका देंगे
छिटकी इस पोटली में क़ैद है आपकी मौत का इंतज़ाम
अकूत हूँ सब कुछ हैं मेरे पास 
जिसे देखकर तुम समझते हो कुछ नहीं उसमें

24.
तुम्हारे बगैर मैं होता ही नहीं

तुम्हारे बगैर मैं बहुत खचाखच रहता हूं
यह दुनिया सारी धक्कम पेल सहित
बेघर पाश की दहलीजें लांघ कर आती-जाती है
तुम्हारे बगैर मैं पूरे का पूरा तूफान होता हूं
ज्वारभाटा और भूकंप होता हूं
तुम्हारे बगैर
मुझे रोज मिलने आते हैं आईंस्टाइन और लेनिन
मेरे साथ बहुत बातें करते हैं
जिनमें तुम्हारा बिलकुल ही जिक्र नहीं होता
मसलन: समय एक ऐसा परिंदा है
जो गांव और तहसील के बीच उड़ता रहता है
और कभी नहीं थकता
सितारे जुल्फों में गुंथे जाते
या जुल्फें सितारों में-एक ही बात है
मसलन: आदमी का एक और नाम मेनशेविक है
और आदमी की असलियत हर सांस के बीच को खोजना है
लेकिन हाय-हाय!
बीच का रास्ता कहीं नहीं होता
वैसे इन सारी बातों से तुम्हारा जिक्र गायब रहता है।

तुम्हारे बगैर
मेरे पर्स में हमेशा ही हिटलर का चित्र परेड करता है
उस चित्र की पृष्ठभूमि में
अपने गांव क‍ी पूरे वीराने और बंजर की पटवार होती है
जिसमें मेरे द्वारा निक्की के ब्याह में गिरवी रखी जमीन के सिवा
बची जमीन भी सिर्फ जर्मनों के लिए ही होती है।

तुम्हारे बगैर, मैं सिद्धार्थ नहीं, बुद्ध होता हूं
और अपना राहुल
जिसे कभी जन्म नहीं देना
कपिलवस्तु का उत्तराधिकारी नहीं
एक भिक्षु होता है।

तुम्हारे बगैर मेरे घर का फर्श-सेज नहीं
ईंटों का एक समाज होता है
तुम्हारे बगैर सरपंच और उसके गुर्गे
हमारी गुप्त डाक के भेदिए नहीं
श्रीमान बीडीओ के कर्मचारी होते हैं
तुम्हारे बगैर अवतार सिंह संधू महज पाश
और पाश के सिवाय कुछ नहीं होता

तुम्हारे बगैर धरती का गुरुत्व
भुगत रही दुनिया की तकदीर होती है
या मेरे जिस्म को खरोंचकर गुजरते अ-हादसे
मेरे भविष्य होते हैं
लेकिन किंदर! जलता जीवन माथे लगता है
तुम्हारे बगैर मैं होता ही नहीं।