Friday 28 March 2014

दुष्यंत कुमार


कुछ भी बन बस कायर मत बन।

ठोकर मार पटक मत माथा

तेरी राह रोकते पाहन

कुछ भी बन बस कायर मत बन।

तेरी रक्षा का न मोल है
पर तेरा मानव अनमोल है
यह मिटता है वह बनता है
अर्पण कर सर्वस्व मनुज को
कर न दुष्ट को आत्म समर्पण
कुछ भी बन बस कायर मत बन।

2.
मरना लगा रहेगा यहाँ जी तो लीजिए

मरना लगा रहेगा यहाँ जी तो लीजिए
ऐसा भी क्या परहेज़, ज़रा—सी तो लीजिए

अब रिन्द बच रहे हैं ज़रा तेज़ रक़्स हो

महफ़िल से उठ लिए हैं नमाज़ी तो लीजिए

पत्तों से चाहते हो बजें साज़ की तरह

पेड़ों से पहले आप उदासी तो लीजिए

ख़ामोश रह के तुमने हमारे सवाल पर

कर दी है शहर भर में मुनादी तो लीजिए

ये रौशनी का दर्द, ये सिरहन ,ये आरज़ू,

ये चीज़ ज़िन्दगी में नहीं थी तो लीजिए

फिरता है कैसे—कैसे सवालों के साथ वो

उस आदमी की जामातलाशी तो लीजिए.


3.
मेरी प्रगति या अगति का
यह मापदण्ड बदलो तुम,
जुए के पत्ते-सा
मैं अभी अनिश्चित हूँ ।
मुझ पर हर ओर से चोटें पड़ रही हैं,
कोपलें उग रही हैं,
पत्तियाँ झड़ रही हैं,
मैं नया बनने के लिए खराद पर चढ़ रहा हूँ,
लड़ता हुआ
नई राह गढ़ता हुआ आगे बढ़ रहा हूँ ।

अगर इस लड़ाई में मेरी साँसें उखड़ गईं,
मेरे बाज़ू टूट गए,
मेरे चरणों में आँधियों के समूह ठहर गए,
मेरे अधरों पर तरंगाकुल संगीत जम गया,
या मेरे माथे पर शर्म की लकीरें खिंच गईं,
तो मुझे पराजित मत मानना,
समझना –
तब और भी बड़े पैमाने पर
मेरे हृदय में असन्तोष उबल रहा होगा,
मेरी उम्मीदों के सैनिकों की पराजित पंक्तियाँ
एक बार और
शक्ति आज़माने को
धूल में खो जाने या कुछ हो जाने को
मचल रही होंगी ।
एक और अवसर की प्रतीक्षा में
मन की क़न्दीलें जल रही होंगी ।

ये जो फफोले तलुओं मे दीख रहे हैं
ये मुझको उकसाते हैं ।
पिण्डलियों की उभरी हुई नसें
मुझ पर व्यंग्य करती हैं ।
मुँह पर पड़ी हुई यौवन की झुर्रियाँ
क़सम देती हैं ।
कुछ हो अब, तय है –
मुझको आशंकाओं पर क़ाबू पाना है,
पत्थरों के सीने में
प्रतिध्वनि जगाते हुए
परिचित उन राहों में एक बार
विजय-गीत गाते हुए जाना है –
जिनमें मैं हार चुका हूँ ।

मेरी प्रगति या अगति का
यह मापदण्ड बदलो तुम
मैं अभी अनिश्चित हूँ ।

                                                   4.
                                       कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं  
गाते-गाते लोग चिल्लाने लगे हैं 

अब तो इस तालाब का पानी बदल दो
ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं 

वो सलीबों के क़रीब आए तो हमको
क़ायदे-क़ानून समझाने लगे हैं 

एक क़ब्रिस्तान में घर मिल रहा है
जिसमें तहख़ानों में तहख़ाने लगे हैं

मछलियों में खलबली है अब सफ़ीने
उस तरफ़ जाने से क़तराने लगे हैं

मौलवी से डाँट खा कर अहले-मक़तब
फिर उसी आयत को दोहराने लगे हैं





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