Thursday 12 December 2013

हबीब सोज (3)

1.
हमारे ख़्वाब सब ताबीर से बाहर निकल आए
वो अपने आप कल तस्वीर से बाहर निकल आए


ये अहल-ए-होश तू घर से कभी बाहर न निकले
मगर दीवाने हर जंज़ीर से बाहर निकल आए

कोई आवाज़ दे कर देख ले मुड़ कर ने देखेंगे
मोहब्बत तेरे इक इक तीर से बाहर निकल आए

दर ओ दीवार भी घर के बहुत मायूस थे हम से
सो हम भी रात इस जागीर से बाहर निकल आए

बड़ी मुश्किल ज़मीनों का गुलाबी रंग भरना था
बहुत जल्दी बयाज़-ए-मीर से बाहर निकल आए

2.
इतनी सी बात थी जो समन्दर को खल गई ।
का़ग़ज़ की नाव कैसे भँवर से निकल गई ।

पहले ये पीलापन तो नहीं था गुलाब में,
लगता है अबके गमले की मिट्टी बदल गई ।

फिर पूरे तीस दिन की रियासत मिली उसे,
फिर मेरी बात अगले महीने पे टल गई ।

इतना बचा हूँ जितना तेरे *हाफ़ज़े में हूँ,
वर्ना मेरी कहानी मेरे साथ जल गई ।

दिल ने मुझे मुआफ़ अभी तक नहीं किया,
दुनिया की राय दूसरे दिन ही बदल गई ।
  • हाफ़ज़े-यादाश्त
3.
ख़ुद को इतना जो हवा-दार समझ रक्खा है
क्या हमें रेत की दीवार समझ रक्खा है!!

हम ने किरदार को कपड़ों की तरह पहना है
तुम ने कपड़ों ही को किरदार समझ रक्खा है!!

मेरी संजीदा तबीअत पे भी शक है सब को
बाज़ लोगों ने तो बीमार समझ रक्खा है!!

उस को ख़ुद-दारी का क्या पाठ पढ़ाया जाए
भीक को जिस ने पुरूस-कार समझ रक्खा है!!

तू किसी दिन कहीं बे-मौत न मारा जाए
तू ने यारों को मदद-गार समझ रक्खा है !!

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