Friday 17 January 2014

अदा जाफरी

1.
आख़िरी टीस आज़माने को
जी तो चाहा था मुस्कुराने को

याद इतनी भी सख़्तजाँ तो नहीं
इक घरौंदा रहा है ढहाने को

संगरेज़ों में ढल गये आँसू
लोग हँसते रहे दिखाने को

ज़ख़्म-ए-नग़्मा भी लौ तो देता है
इक दिया रह गया जलाने को

जलने वाले तो जल बुझे आख़िर
कौन देता ख़बर ज़माने को

कितने मजबूर हो गये होंगे
अनकही बात मुँह पे लाने को

खुल के हँसना तो सब को आता है
लोग तरसते रहे इक बहाने को

रेज़ा रेज़ा बिखर गया इन्साँ
दिल की वीरानियाँ जताने को

हसरतों की पनाहगाहों में
क्या ठिकाने हैं सर छुपाने को

हाथ काँटों से कर लिये ज़ख़्मी
फूल बालों में इक सजाने को

आस की बात हो कि साँस 'अदा'
ये ख़िलौने हैं टूट जाने को


2.
न ग़ुबार में न गुलाब में मुझे देखना
मेरे दर्द की आब-ओ-तब में मुझे देखना

किसी वक़्त शाम मलाल में मुझे सोचना
कभी अपने दिल की किताब में मुझे देखना

किसी धुन में तुम भी जो बस्तियों को त्याग दो
इसी रह-ए-ख़ानाख़राब में मुझे देखना

किसी रात माह-ओ-नजूम से मुझे पूछना
कभी अपनी चश्म पुरआब में मुझे देखना

इसी दिल से हो कर गुज़र गये कई कारवाँ
की हिज्रतों के ज़ाब में मुझे देखना

मैं न मिल सकूँ भी तो क्या हुआ के फ़साना हूँ
नई दास्ताँ नये बाब में मुझे देखना

मेरे ख़ार ख़ार सवाल में मुझे ढूँढना
मेरे गीत में मेरे ख़्वाब में मुझे देखना

मेरे आँसुओं ने बुझाई थी मेरी तश्नगी
इसी बरगज़ीदा सहाब में मुझे देखना

वही इक लम्हा दीद था के रुका रहा
मेरे रोज़-ओ-शब के हिसाब में मुझे देखना 

जो तड़प तुझे किसी आईने में न मिल सके
तो फिर आईने के जवाब में मुझे देखना

3.
जो चराग़ सारे बुझा चुके उन्हें इंतिज़ार कहाँ रहा
ये सुकूँ का दौर-ए-शदीद है कोई बे-क़रार कहाँ रहा

जो दुआ को हाथ उठाए भी तो मुराद याद न आ सकी
किसी कारवाँ का जो ज़िक्र था वो पस-ए-ग़ुबार कहाँ रहा

ये तुलू-ए-रोज़-ए-मलाल है सो गिला भी किस से करेंगे हम
कोई दिल-रुबा कोई दिल-शिकन कोई दिल-फ़िगार कहाँ रहा

कोई बात ख़्वाब ओ ख़याल की जो करो तो वक़्त कटेगा अब
हमें मौसमों के मिज़ाज पर कोई ऐतबार कहाँ रहा

हमें कू-ब-कू जो लिए फिरी किसी नक़्श-ए-पा की तलाश थी
कोई आफ़ताब था ज़ौ-फ़गन सर-ए-रह-गुज़ार कहाँ रहा

मगर एक धुन तो लगी रही न ये दिल दुखा न गिला हुआ
के निगाह को रंग-ए-बहार पर कोई इख़्तियार कहाँ रहा

सर-ए-दश्त ही रहा तिश्ना-लब जिसे ज़िंदगी की तलाश थी
जिसे ज़िंदगी की तलाश थी लब-ए-जूएबार कहाँ रहा

4.
गुलों सी गुफ़्तुगू करें क़यामतों के दरमियाँ
हम ऐसे लोग अब मिलें हिकायतों के दरमियाँ

लहू-लुहान उँगलियाँ हैं और चुप खड़ी हूँ मैं
गुल ओ समन की बे-पनाह चाहतों के दरमियाँ

हथेलियों की ओट ही चराग़ ले चलूँ अभी
अभी सहर का ज़िक्र है रिवायतों के दरमियाँ

जो दिल में थी निगाह सी निगाह में किरन सी थी
वो दास्ताँ उलझ गई वज़ाहतों के दरमियाँ

सहिफ़ा-ए-हयात में जहाँ जहाँ लिखी गई
लिखी गई हदीस-ए-जाँ जराहतों के दरमियाँ

कोई नगर कोई गली शजर की छाँव ही सही
ये ज़िंदगी न कट सके मुसाफ़तों के दरमियाँ

अब उस के ख़ाल-ओ-ख़द का रंग मुझ से पूछना अबस
निगाह झपक झपक गई इरादतों के दरमियाँ

सबा का हाथ थाम कर 'अदा' न चल सकोगी तुम
तमाम उम्र ख़्वाब ख़्वाब साअतों के दरमियाँ

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