Sunday 18 May 2014

बलबीर सिंह रंग

5.शांत दृगों में धधक उठी फिर यहाँ क्रांति की ज्वाला ,
प्यासी धरती मांग उठी फिर हृदय-रक्त का प्याला .
समय स्वयं जपने बैठा फिर महा मृत्यु की माला,
इन्कलाब की बाट जोहता क्या अदना, क्या आला .
जनता के आवाहन पर नवयुग ने करवट फेरी .
फिर से गूंज उठी रणभेरी .

पूर्व आज स्वीकार कर उठा पश्चिम का रण-न्योता,
पराधीनता और स्वतंत्रता में कैसा समझौता ?
हमें राह से डिगा न सकते अरि के दमन सुधारे 
आजादी या मौत यही बस दो प्रस्ताव हमारे .
शूर बांधते कफन शीश से, कायर करते देरी,
फिर से गूंज उठी रणभेरी 



4.
युग के आहत उर की पीड़ा बन गई आज कविता मेरी।
अपने मानव की परवशता
मैंने कवि बन कर पहचानी,
दुख-विष के प्याले पीकर ही तो
सुख मधु की मृदुता जानी,
संघर्षों के वातायन से-
मैंने जग का अंतर झाँका,
जग से निज स्वार्थ कसौटी से
मेरी नि:च्छलता को आँका,
जग भ्रांति भरा, मैं क्रांति भरा जग से कैसी समता मेरी,
युग के आहत उर की पीड़ा बन गई आज कविता मेरी।

संसृति से मुझे अतृप्ति मिली
मैंने अनगिन अरमान दिए,
रोदन का दान मिला मुझको
मैंने मादक मृदुगान दिए,
व्यवहार कुशल जग में कवि के
वरदान किसी कब याद रहे,
शशि को दी रजत निशा मैंने
दिनकर को स्वर्ण-विहान दिए,
लघुता वसुधा में लीन हुई नभ ने ले ली गुस्र्ता मेरी
युग के आहत उर की पीड़ा बन गई आज कविता मेरी।

किस रवि की स्वर्णिम किरणों ने
मम उर-सरसिज के पात छुए,
मेरी हृद-वीणा पर किसके
सोये स्वर जगते राग हुए,
किसने मेरे कोमल उर पर
रख पीड़ाओं का भार दिया,
मैंने किसके आराधन को
अनजाने में स्वीकार किया,
यह प्रश्न उठे मैं मौन रहा जग समझा कायरता मेरी,
युग के आहत उर की पीड़ा बन गई आज कविता मेरी।

3.
पतझर-सा लगे वसन्त
तुम्हारी याद न जब आई

जिस सीमा में जग का जीवन बन्दी
जिस सीमा में कवि का क्रंदन बन्दी
जिसके आगे का देश सुनहरा है
जिस पर रहता भविष्य का पहरा है
वह सीमा बनी अनन्त
तुम्हारी याद न जब आई

जिस पथ पर अरमानों की हलचल आई
जिस पथ पर मैंने भूली मंज़िल पाई
जिस पथ पर मुझको मिली जवानी हँसती
विरहातप के संग शीतल कल-कल पाई
वह मिला धूलि में पंथ
तुम्हारी याद न जब आई

मैं अवसादों में पले प्यार की पीर पुरानी हूँ
जो अनजाने हो गई, हाय, मैं वह नादानी हूँ
वह नादानी बन गई आज जीवन की परिभाशःआ
प्राणों की पीड़ा बनी आज मृगजल की-सी आशा
आरम्भ बन गया अन्त
तुम्हारी याद न जब आई
पतझर-सा लगा वसन्त
तुम्हारी याद न जब आई


2

जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है ।

सहसा भूली याद तुम्हारी उर में आग लगा जाती है
विरह-ताप भी मधुर मिलन के सोये मेघ जगा जाती है,
मुझको आग और पानी में रहने का अभ्यास बहुत है
जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है ।

धन्य-धन्य मेरी लघुता को, जिसने तुम्हें महान बनाया,
धन्य तुम्हारी स्नेह-कृपणता, जिसने मुझे उदार बनाया,
मेरी अन्धभक्ति को केवल इतना मन्द प्रकाश बहुत है 
जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है ।

अगणित शलभों के दल के दल एक ज्योति पर जल-जल मरते
एक बूँद की अभिलाषा में कोटि-कोटि चातक तप करते,
शशि के पास सुधा थोड़ी है पर चकोर की प्यास बहुत है
जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है ।

मैंने आँखें खोल देख ली है नादानी उन्मादों की 
मैंने सुनी और समझी है कठिन कहानी अवसादों की,
फिर भी जीवन के पृष्ठों में पढ़ने को इतिहास बहुत है
जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है ।

ओ ! जीवन के थके पखेरू, बढ़े चलो हिम्मत मत हारो,
पंखों में भविष्य बंदी है मत अतीत की ओर निहारो,
क्या चिंता धरती यदि छूटी उड़ने को आकाश बहुत है
जाने क्यों तुमसे मिलने की आशा कम, विश्वास बहुत है ।

1.
जो गए आगे
उन्हीं से प्रेरणा लेकर
जो रहे पीछे
उन्हें नव चेतना देकर
रंग ऐसा हूँ सभी पर छा रहा हूँ मैं
कौन कहता है कि पीछे जा रहा हूँ मैं
है किसी में दम
जो मेरा ग़म ग़लत कर दे
मैं जगाऊँ राग कोई
साथ का स्वर दे
इस दुराशा में समय बहला रहा हूँ मैं
कौन कहता है कि पीछे जा रहा हूँ मैं
वह बढ़ेंगे क्या
जिन्हें रुकना नहीं आता
उच्चता पाकर जिन्हें
झुकना नहीं आता
जो नहीं समझे उन्हें समझा रहा हूँ मैं
कौन कहता है कि पीछे जा रहा हूँ मैं ||

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