Wednesday, 25 September 2013

कतील ( 3 )

1.
सदमा तो है मुझे भी कि तुझसे जुदा हूँ मैं 
लेकिन ये सोचता हूँ कि अब तेरा क्या हूँ मैं 

बिखरा पड़ा है तेरे ही घर में तेरा वजूद 
बेकार महफ़िलों में तुझे ढूँढता हूँ मैं 


मैं ख़ुदकशी के जुर्म का करता हूँ ऐतराफ़ 
अपने बदन की क़ब्र में कब से गड़ा हूँ मैं 

किस-किसका नाम लाऊँ ज़बाँ पर कि तेरे साथ 
हर रोज़ एक शख़्स नया देखता हूँ मैं 

ना जाने किस अदा से लिया तूने मेरा नाम 
दुनिया समझ रही है के सब कुछ तेरा हूँ मैं 

ले मेरे तजुर्बों से सबक ऐ मेरे रक़ीब 
दो चार साल उम्र में तुझसे बड़ा हूँ मैं 

जागा हुआ ज़मीर वो आईना है 
सोने से पहले रोज़ जिसे देखता हूँ मैं

2.
ख़ुशबुओं की तरह जो बिखर जाएगा
अक़्स उसका दिलों में उतर जाएगा

दर्द से रोज़ करते रहो गुफ़्तगू
ज़ख़्म गहरा भी हो तो वो भर जाएगा

वो न ख़ंजर से होगा न तलवार से
तीर नज़रों का जो काम कर जाएगा

हसरतों के चराग़ों को रौशन करो
दिल तुम्हारा उजालों से भर जाएगा

वक़्त कैसा भी हो वो ठहरता नहीं
जो बुरा वक़्त है वो गुज़र जाएगा

धड़कनों की तरह चल रही है घड़ी
एक दिन वक़्त यानी ठहर जाएगा

ज़िन्दगी से मुहब्बत बहुत हो गई
जाने कब दिल से मरने का डर जाएगा


3.
तुम पूछो और मैं न बताऊँ ऐसे तो हालात नहीं
एक ज़रा सा दिल टूटा है और तो कोई बात नहीं

किसको ख़बर थी साँवले बादल बिन बरसे उड़ जाते हैं
सावन आया लेकिन अपनी क़िस्मत में बरसात नहीं

माना जीवन में औरत एक बार मोहब्बत करती है
लेकिन मुझको ये तो बता दे क्या तू औरत ज़ात नहीं

टूट गया जब दिल तो फिर साँसों का नग़मा क्या माने
गूँज रही है क्यों शहनाई जब कोई बारात नहीं

ख़त्म हुआ मेरा अफ़साना अब ये आँसू पोंछ भी लो
जिसमें कोई तारा चमके आज की रात वो रात नहीं

मेरे ग़मग़ीं होने पर एहबाब हैं यूँ हैरान ‘क़तील’
जैसे मैं पत्थर हूँ मेरे सीने में जज़्बात नहीं

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