Monday, 9 September 2013

बृज नारायण चकबस्त (4 )

       बृज नारायण चकबस्त 



1.
एक साग़र भी इनायत न हुआ याद रहे ।
साक़िया जाते हैं, महफ़िल तेरी आबाद रहे ।।



बाग़बाँ दिल से वतन को यह दुआ देता है,
मैं रहूँ या न रहूँ यह चमन आबाद रहे ।



मुझको मिल जाय चहकने के लिए शाख़ मेरी,
कौन कहता है कि गुलशन में न सय्याद रहे ।



बाग़ में लेके जनम हमने असीरी झेली,
हमसे अच्छे रहे जंगल में जो आज़ाद रहे ।
2.
फ़ना का होश आना ज़िंदगी का दर्द-ए-सर जाना
अजल क्या है खुमार-ए-बादा-ए-हस्ती उतर जाना

मुसीबत में बशर के जौहर-ए-मरदाना खुलते हैं
मुबारक बुजदिलों को गर्दिश-ए-किस्मत से डर जाना

बोहत सौदा रहा वाएज़ तुझे नार-ए-जहन्नुम का
मज़ा सोज़-ए-मोहब्बत का भी कुछ ए बेखबर जाना

3.
दर्द-ए-दिल पास-ए-वफ़ा जज़्बा-ए-इमाँ होना
आदमियत यही है और यही इन्साँ होआ 


नौ-गिरफ़्तार-ए-बला तर्ज़-ए-फ़ुग़ाँ क्या जानें 
कोई नाशाद सिखा दे इन्हें नालाँ होना 


रह के दुनिया में यूँ तर्क-ए-हवस की कोशिश 
जिस तरह् अपने ही साये से गुरेज़ाँ होना 


ज़िन्दगी क्या है अनासिर् में ज़हूर्-ए-तर्तीब् 
मौत क्य है इन्हीं इज्ज़ा का परेशाँ होना 


दिल असीरी में भी आज़ाद है आज़ादों का 
वल्वलों के लिये मुम्किन नहीं ज़िन्दा होना 


गुल को पामाल न कर लाल-ओ-गौहर के मालिक 
है इसे तुराह-ए-दस्तार-ए-ग़रीबाँ होना 


है मेरा ज़ब्त-ए-जुनूँ जोश-ए-जुनूँ से बढ़कर
नंग है मेरे लिये चाक गरेबाँ होना 

4.
ख़ाके-हिन्द
 ( हिन्द की मिटटी )

अगली-सी ताज़गी है फूलों में और फलों में

करते हैं रक़्स अब तक ताऊस  जंगलों में
अब तक वही कड़क है बिजली की बादलों में
पस्ती-सी आ गई है पर दिल के हौसलों में



गुल शमअ-ए-अंजुमन है,गो  अंजुमन वही है

हुब्बे-वतन नहीं है, ख़ाके-वतन वही है


बरसों से हो रहा है बरहम समाँ  हमारा

दुनिया से मिट रहा है नामो-निशाँ  हमारा
कुछ कम नहीं अज़ल से ख़्वाबे-गराँ  हमारा
इक लाशे -बे-क़फ़न है हिन्दोस्ताँ हमारा



इल्मो-कमाल-ओ-ईमाँ  बरबाद हो रहे हैं

ऐशो-तरब के बन्दे  ग़फ़लत , में सो रहे हैं


ऐ सूरे-हुब्बे-क़ौमी ! इस ख़्वाब को जगा दे

भूला हुआ फ़साना कानों को फिर सुना दे
मुर्दा तबीयतों की अफ़सुर्दगी मिटा दे
उठते हुए शरारे  इस राख से दिखा दे



हुब्बे-वतन समाए आँखों में नूर  होकर

सर में ख़ुमार हो कर, दिल में सुरूर हो कर
                                                     
है जू-ए-शीर हमको नूरे-सहर  वतन  का
आँखों को रौशनी है जल्वा इस अंजुमन का



है रश्क़े- महर ज़र्र: इस मंज़िले -कुहन का

तुलता है बर्गे-गुल  से काँटा भी इस चमन का
ग़र्दो-ग़ुबार याँ का ख़िलअत है अपने तन को
मरकर भी चाहते हैं ख़ाके-वतन क़फ़न को

  

शब्दार्थ:अगली-सी=उच्च कोटि की, ताउस =मोर , पस्ती सी =निरुत्साहितता,शिथिलता
गुल शमअ-ए-अंजुमन=सभा का दीपक बुझा हुआ, अंजुमन=सभा, हुब्बे-वतन=स्वदेश-प्रेम
बरहम= अस्त-व्यस्त, समाँ =हाल, अज़ल=मृत्यु, ख़्वाबे-गराँ=गहरी नींद, इल्मो-कमाल-ओ-ईमाँ= विद्या,कार्य कुशलता,ईमानदारी, ऐशो-तरब=भोग=विलास, ग़फ़लत=अनभिज्ञता
ऐ सूरे-हुब्बे-क़ौमी= देश प्रेम का नगाड़ा,नरसिंहा बाजा, मृत प्राय:, मुर्दा तबीयतों=कुम्हलाए हुए दिलों, अफ़सुर्दगी=कुम्हलाहट, सर में ख़ुमार=उतरता हुआ नशा,जू-ए-शीर= दूध की नदी
रश्क़े- महर= सूर्य को लज्जित करने वाला,ज़र्र: =धूल-कण, मंज़िले -कुहन=प्राचीन पथ, बर्गे-गुल=फूल की पत्ती से,ख़िलअत=पोशाक, याँ=यहाँ||
                                                   **

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