Monday, 16 September 2013

साहिर लुधियानवी (3)

1.
अब न इन ऊंचे मकानों में क़दम रक्खूंगा
मैंने इक बार ये पहले भी क़सम खाई थी
अपनी नादार मोहब्बत की शिकस्तों के तुफ़ैल
ज़िन्दगी पहले भी शरमाई थी, झुंझलाई थी

और ये अहद किया था कि ब-ई-हाले-तबाह
अब कभी प्यार भरे गीत नहीं गाऊंगा
किसी चिलमन ने पुकारा भी तो बढ़ जाऊँगा
कोई दरवाज़ा खुला भी तो पलट आऊंगा

फिर तिरे कांपते होंटों की फ़ुन्सूकार हंसी
जाल बुनने लगी, बुनती रही, बुनती ही रही
मैं खिंचा तुझसे, मगर तू मिरी राहों के लिए
फूल चुनती रही, चुनती रही, चुनती ही रही

बर्फ़ बरसाई मिरे ज़ेहनो-तसव्वुर ने मगर
दिल में इक शोला-ए-बेनाम-सा लहरा ही गया
तेरी चुपचाप निगाहों को सुलगते पाकर
मेरी बेज़ार तबीयत को भी प्यार आ ही गया

अपनी बदली हुई नज़रों के तकाज़े न छुपा
मैं इस अंदाज़ का मफ़हूम समझ सकता हूँ
तेरे ज़रकार दरीचों को बुलंदी की क़सम
अपने इकदाम का मकसूम[ समझ सकता हूँ

अब न इन ऊँचे मकानों में क़दम रक्खूंगा
मैंने इक बार ये पहले भी क़सम खाई थी
इसी सर्माया-ओ-इफ़लास के दोराहे पर
ज़िन्दगी पहले भी शरमाई थी, झुंझलाई थी
ब-ई-हाले-तबाह -यों तबाह-हाल होने पर भी //
 फ़ुन्सूकार=जादू भरी  //ज़ेहनो-तसव्वुर ने =मस्तिष्क तथा कल्पना ने// मफ़हूम =अर्थ 
ज़रकार =स्वर्णिम // मकसूम[ =कदम बढ़ाने का भाग्य(परिणाम) //
 सर्माया-ओ-इफ़लास के =धन तथा निर्धनता के
2.
मैं ज़िन्दा हूँ ये मुश्तहर कीजिए

मेरे क़ातिलों को ख़बर कीजिए

ज़मीं सख्त है, आसमाँ दूर है

बसर हो सके तो बसर कीजिए


सितम के बहुत से हैं रद्दे-अमल

ज़रूरी नहीं चश्म तर कीजिए


वही ज़ुल्म बारे-दिगर है तो फिर

वही ज़ुर्म बारे-दिगर कीजिए


क़फ़स तोड़ना बाद की बात है

अभी ख़्वाहिशे-बालो-पर कीजिए




3. 
ज़ुल्म फिर ज़ुल्म है, बढ़ता है तो मिट जाता है
ख़ून फिर ख़ून है टपकेगा तो जम जाएगा
तुमने जिस ख़ून को मक़्तल में दबाना चाहा
आज वह कूचा-ओ-बाज़ार में आ निकला है
कहीं शोला, कहीं नारा, कहीं पत्थर बनकर
ख़ून चलता है तो रूकता नहीं संगीनों से
सर उठाता है तो दबता नहीं आईनों से

जिस्म की मौत कोई मौत नहीं होती है
जिस्म मिट जाने से इन्सान नहीं मर जाते
धड़कनें रूकने से अरमान नहीं मर जाते
साँस थम जाने से ऐलान नहीं मर जाते
होंठ जम जाने से फ़रमान नहीं मर जाते
जिस्म की मौत कोई मौत नहीं होती

ख़ून अपना हो या पराया हो
नस्ले आदम का ख़ून है आख़िर
जंग मशरिक में हो कि मग़रिब में
अमने आलम का ख़ून है आख़िर

बम घरों पर गिरें कि सरहद पर
रूहे- तामीर ज़ख़्म खाती है
खेत अपने जलें या औरों के
ज़ीस्त फ़ाक़ों से तिलमिलाती है

जंग तो ख़ुद हीं एक मअसला है
जंग क्या मअसलों का हल देगी
आग और खून आज बख़्शेगी
भूख और अहतयाज कल देगी


बरतरी के सुबूत की ख़ातिर
खूँ बहाना हीं क्या जरूरी है
घर की तारीकियाँ मिटाने को 
घर जलाना हीं क्या जरूरी है

टैंक आगे बढें कि पीछे हटें
कोख धरती की बाँझ होती है
फ़तह का जश्न हो कि हार का सोग
जिंदगी मय्यतों पे रोती है

इसलिए ऐ शरीफ इंसानों
जंग टलती रहे तो बेहतर है
आप और हम सभी के आँगन में
शमा जलती रहे तो बेहतर है।

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