Friday, 13 December 2013

अख्तर नाज्मी(1)

1.
सिलसिला ज़ख्म ज़ख्म जारी है 
ये ज़मी दूर तक हमारी है 


मैं बहुत कम किसी से मिलता हूँ
जिससे यारी है उससे यारी है 

हम जिसे जी रहे हैं वो लम्हा
हर गुज़िश्ता सदी पे भारी है

मैं तो अब उससे दूर हूँ शायद 
जिस इमारत पे संगबारी है 

नाव काग़ज़ की छोड़ दी मैंने
अब समन्दर की ज़िम्मेदारी है 

फ़लसफ़ा है हयात का मुश्किल 
वैसे मज़मून इख्तियारी है 

रेत के घर तो बह गए नज़मी 
बारिशों का खुलूस जारी है

Thursday, 12 December 2013

राज इलाहाबादी (1)

1.
लज़्ज़त-ए-ग़म बढ़ा दीजिये,
आप यूँ मुस्कुरा दीजिये

कीमत-ए-दिल बता दीजिये, 
ख़ाक़ ले कर उड़ा दीजिये

आप अंधेरे में कब तक रहें, 
फिर कोई घर जला दीजिये

चाँद कब तक गहन में रहे, 
आप ज़ुल्फ़ें हटा दीजिये

मेरा दामन बहुत साफ़ है, 
कोई तोहमत लगा दीजिये

एक समन्दर ने आवाज़ दी, 
मुझको पानी पिला दीजिये

अकबर इलाहाबादी

1.
हंगामा है क्यों बरपा थोड़ी सी जो पी ली है
डाका तो नहीं डाला चोरी तो नहीं की है

उस मय से नहीं मतलब दिल जिससे हो बेगाना
मकसूद है उस मय से दिल ही में जो खिंचती है

सूरज में लगे धब्बा फ़ितरत के करिश्मे हैं
बुत हमको कहें काफ़िर अल्लाह की मरज़ी है

ना तजुर्बाकारी से वाइज़ की ये बातें है
इस रंग को क्या जाने पूछो तो कभी पी है

हर ज़र्रा चमकता है अनवर-ए-इलाही से
हर सांस ये कहती है हम है तो खुदा भी है..

हबीब सोज (3)

1.
हमारे ख़्वाब सब ताबीर से बाहर निकल आए
वो अपने आप कल तस्वीर से बाहर निकल आए


ये अहल-ए-होश तू घर से कभी बाहर न निकले
मगर दीवाने हर जंज़ीर से बाहर निकल आए

कोई आवाज़ दे कर देख ले मुड़ कर ने देखेंगे
मोहब्बत तेरे इक इक तीर से बाहर निकल आए

दर ओ दीवार भी घर के बहुत मायूस थे हम से
सो हम भी रात इस जागीर से बाहर निकल आए

बड़ी मुश्किल ज़मीनों का गुलाबी रंग भरना था
बहुत जल्दी बयाज़-ए-मीर से बाहर निकल आए

2.
इतनी सी बात थी जो समन्दर को खल गई ।
का़ग़ज़ की नाव कैसे भँवर से निकल गई ।

पहले ये पीलापन तो नहीं था गुलाब में,
लगता है अबके गमले की मिट्टी बदल गई ।

फिर पूरे तीस दिन की रियासत मिली उसे,
फिर मेरी बात अगले महीने पे टल गई ।

इतना बचा हूँ जितना तेरे *हाफ़ज़े में हूँ,
वर्ना मेरी कहानी मेरे साथ जल गई ।

दिल ने मुझे मुआफ़ अभी तक नहीं किया,
दुनिया की राय दूसरे दिन ही बदल गई ।
  • हाफ़ज़े-यादाश्त
3.
ख़ुद को इतना जो हवा-दार समझ रक्खा है
क्या हमें रेत की दीवार समझ रक्खा है!!

हम ने किरदार को कपड़ों की तरह पहना है
तुम ने कपड़ों ही को किरदार समझ रक्खा है!!

मेरी संजीदा तबीअत पे भी शक है सब को
बाज़ लोगों ने तो बीमार समझ रक्खा है!!

उस को ख़ुद-दारी का क्या पाठ पढ़ाया जाए
भीक को जिस ने पुरूस-कार समझ रक्खा है!!

तू किसी दिन कहीं बे-मौत न मारा जाए
तू ने यारों को मदद-गार समझ रक्खा है !!

Saturday, 26 October 2013

अब्दुल हमीद अदम (1)

1.
बस इस क़दर है ख़ुलासा मेरी कहानी का
के बन के टूट गया इक हुबाब पानी का
मिला है साक़ी तो रौशन हुआ है ये मुझ पर
के हज़्फ़ था कोई टुकड़ा मेरी कहानी का
मुझे भी चेहरे पे रौनक़ दिखाई देती है
ये मोजज़ा है तबीबों की ख़ुश-बयानी का
है दिल में एक ही ख़्वाहिश वो डूब जाने की
कोई शबाब कोई हुस्न है रवानी का
लिबास-ए-हश्र में कुछ हो तो और क्या होगा
बुझा सा इक छनाका तेरी जवानी का
करम के रंग निहायत अजीब होते हैं
सितम भी एक तरीक़ा है मेहरबानी का
'अदम' बहार के मौसम ने ख़ुद-कुशी कर ली
खुला जो रंग किसी जिस्म-ए-अर्ग़वानी का.

Friday, 25 October 2013

निदा फाजली (3)



1.
देखा हुआ सा कुछ है तो सोचा हुआ सा कुछ
हर वक़्त मेरे साथ है उलझा हुआ सा कुछ

होता है यूँ भी, रास्ता खुलता नहीं कहीं
जंगल-सा फैल जाता है खोया हुआ सा कुछ

साहिल की गीली रेत पर बच्चों के खेल-सा
हर लम्हा मुझ में बनता बिखरता हुआ सा कुछ

फ़ुर्सत ने आज घर को सजाया कुछ इस तरह
हर शय से मुस्कुराता है रोता हुआ सा कुछ

धुँधली-सी एक याद किसी क़ब्र का दिया
और मेरे आस-पास चमकता हुआ सा कुछ




2.
वो शोख शोख नज़र सांवली सी एक लड़की
जो रोज़ मेरी गली से गुज़र के जाती है
सुना है
वो किसी लड़के से प्यार करती है
बहार हो के, तलाश-ए-बहार करती है
न कोई मेल न कोई लगाव है लेकिन न जाने क्यूँ
बस उसी वक़्त जब वो आती है
कुछ इंतिज़ार की आदत सी हो गई है
मुझे
एक अजनबी की ज़रूरत हो गई है मुझे
मेरे बरांडे के आगे यह फूस का छप्पर
गली के मोड पे खडा हुआ सा
एक पत्थर
वो एक झुकती हुई बदनुमा सी नीम की शाख
और उस पे जंगली कबूतर के घोंसले का निशाँ
यह सारी चीजें कि जैसे मुझी में शामिल हैं
मेरे दुखों में मेरी हर खुशी में शामिल हैं
मैं चाहता हूँ कि वो भी यूं ही गुज़रती रहे
अदा-ओ-नाज़ से लड़के को प्यार करती रहे

3.
तुम्हारी कब्र पर मैं
फ़ातेहा पढ़ने नही आया,
मुझे मालूम था, तुम मर नही सकते
तुम्हारी मौत की सच्ची खबर
जिसने उड़ाई थी, वो झूठा था,
वो तुम कब थे?
कोई सूखा हुआ पत्ता, हवा मे गिर के टूटा था ।
मेरी आँखे
तुम्हारी मंज़रो मे कैद है अब तक
मैं जो भी देखता हूँ, सोचता हूँ
वो, वही है
जो तुम्हारी नेक-नामी और बद-नामी की दुनिया थी ।
कहीं कुछ भी नहीं बदला,
तुम्हारे हाथ मेरी उंगलियों में सांस लेते हैं,
मैं लिखने के लिये जब भी कागज कलम उठाता हूं,
तुम्हे बैठा हुआ मैं अपनी कुर्सी में पाता हूं |
बदन में मेरे जितना भी लहू है,
वो तुम्हारी लगजिशों नाकामियों के साथ बहता है,
मेरी आवाज में छुपकर तुम्हारा जेहन रहता है,
मेरी बीमारियों में तुम मेरी लाचारियों में तुम |
तुम्हारी कब्र पर जिसने तुम्हारा नाम लिखा है,
वो झूठा है, वो झूठा है, वो झूठा है,
तुम्हारी कब्र में मैं दफन तुम मुझमें जिन्दा हो,
कभी फुरसत मिले तो फातहा पढनें चले आना |

Sunday, 29 September 2013

डा॰हरीओम पवार

1.

जो सीने पर गोली खाने को आगे बढ़ जाते थे,

भारत माता की जय कह कर फ़ासीं पर जाते थे |

जिन बेटो ने धरती माता पर कुर्बानी दे डाली,

आजादी के हवन कुँड के लिये जवानी दे डाली !

वे देवो की लोकसभा के अँग बने बैठे होगे

वे सतरँगी इन्द्रधनुष के रँग बने बैठे होगे !

दूर गगन के तारे उनके नाम दिखाई देते है

उनके स्मारक चारो धाम दिखाई देते है !

जिनके कारण ये भारत आजाद दिखाई देता है

अमर तिरँगा उन बेटो की याद दिखाई देता है !

उनका नाम जुबा पर लो तो पलको को झपका लेना

उनको जब भी याद करो तो दो आँसू टपका लेना

उनको जब भी याद करो तो दो आँसू टपका लेना....

Friday, 27 September 2013

हयात हाशमी

1.
क्यों हमें मौत के पैग़ाम दिए जाते हैं 

ये सज़ा कम तो नहीं है कि जिए जाते हैं

क़ब्र की धूल चिताओं का धुआँ बेमानी 
ज़िन्दगी में ये कफ़न पहन लिए जाते हैं 

उनके क़दमों पे न रख सर कि है ये बेअदबी 
पा-ए-नाज़ुक तो सर-आँखों पे लिए जाते हैं

आबगीनों की तरह दिल हैं ग़रीबों के हयात 
टूट जाते हैं कबी तोड़ दिए जाते हैं



2.
आशियाँ 'बर्क़ आशियाँ' ही रहा 
तिनका-तिनका,धुआँ-धुआँ ही रहा

खून रोते रहे नज़र वाले 
इस ज़मीं पर भी आसमाँ ही रहा

हम सितम का शिकार होते रहे
आप का नाम मेहरबाँ ही रहा

दावत-ए-ग़म क़ुबूल की हमने 
फिर भी एहसान-ए-दोस्ताँ ही रहा

दायरा आदमी की सोचों का 
किफ़्र-ओ-ईमाँ के दरमियाँ ही रहा

पायमाली हयात की क़िस्मत 
दिल गुज़रगाह-ए-महवशाँ ही रहा

मुजफ्फर हनफी



1.

बेसबब रूठ के जाने के लिए आए थे 
आप तो हमको मनाने के लिए आए थे 


ये जो कुछ लोग खमीदा हैं कमानों की तरह
आसमानों को झुकाने के लिए आए थे

हमको मालूम था दरिया में नहीं है पानी 
सर को नेज़े पे चढ़ाने के लिए आए थे 

इखतिलाफ़ों को अक़ीदे का नया नाम न दो 
तुम ये दीवार गिराने के लिए आए थे 

है कोई सिम्त कि बरसाए न हम पर पत्थर 
हम यहाँ फूल खिलाने के लिए आए थे 

हाथ की बर्फ़ न पिघले तो मुज़फ़्फ़र क्या हो 
वो मेरी आग चुराने के लिए आए थे 


2.
ये बात खबर में आ गई है 
ताक़त मेरे पर में आ गई है 

आवारा परिन्दों को मुबारक 
हरियाली शजर में आ गई है

इक मोहिनी शक्ल झिलमिलाती 
फिर दीदा ए तर में आ गई है 

शोहरत के लिए मुआफ़ करना 
कुछ धूल सफ़र में आ गई है 

हम और न कर सकेंगे बरदाश्त 
दीवानगी सर में आ गई है

रातों को सिसकने वाली शबनम 
सूरज की नज़र में आ गई है 

अब आग से कुछ नहीं है महफ़ूज़ 
हमसाए के घर में आ गई है 


3.
पड़ोसी तुम्हारी नज़र में भी हैं 
यही मशविरे उनके घर में भी हैं 

मकीनों की फ़रियाद जाली सही
मगर ज़ख्म दीवार-व-दर में भी हैं 

बगूले की मसनद पे बैठे हैं हम 
सफ़र में नहीं हैं सफ़र में भी हैं 

तड़पने से कोई नहीं रोकता 
शिकंजे मेरे बाल-व-पर में भी हैं

तेरे बीज बोने से क्या फ़ायदा 
समर क्या किसी इक शजर में भी हैं

हमें क्या खबर थी कि शायर हैं वो 
मुज़फ़्फ़र मियाँ इस हुनर में भी हैं

Thursday, 26 September 2013

सुदर्शन फ़ाकिर (3)

1.
किसी रंजिश को हवा दो कि मैं ज़िंदा हूँ अभी
मुझ को एहसास दिला दो कि मैं ज़िंदा हूँ अभी
मेरे रुकने से मेरी साँसे भी रुक जायेंगी
फ़ासले और बड़ा दो कि मैं ज़िंदा हूँ अभी
ज़हर पीने की तो आदत थी ज़मानेवालो
अब कोई और दवा दो कि मैं ज़िंदा हूँ अभी
चलती राहों में यूँ ही आँख लगी है 'फ़ाकिर'
भीड़ लोगों की हटा दो कि मैं ज़िंदा हूँ अभी


2 .
आदमी आदमी को क्या देगा
जो भी देगा वही ख़ुदा देगा
मेरा क़ातिल ही मेरा मुंसिब है
क्या मेरे हक़ में फ़ैसला देगा
ज़िन्दगी को क़रीब से देखो
इसका चेहरा तुम्हें रुला देगा
हमसे पूछो दोस्ती का सिला
दुश्मनों का भी दिल हिला देगा
इश्क़ का ज़हर पी लिया "फ़ाकिर"
अब मसीहा भी क्या दवा देगा 



3.
अगर हम कहें और वो मुस्कुरा दें
हम उनके लिए ज़िंदगानी लुटा दें
हर एक मोड़ पर हम ग़मों को सज़ा दें
चलो ज़िन्दगी को मोहब्बत बना दें
अगर ख़ुद को भूले तो, कुछ भी न भूले
कि चाहत में उनकी, ख़ुदा को भुला दें
कभी ग़म की आँधी, जिन्हें छू न पाये
वफ़ाओं के हम, वो नशेमन बना दें
क़यामत के दीवाने कहते हैं हमसे
चलो उनके चहरे से पर्दा हटा दें 

Wednesday, 25 September 2013

कतील ( 3 )

1.
सदमा तो है मुझे भी कि तुझसे जुदा हूँ मैं 
लेकिन ये सोचता हूँ कि अब तेरा क्या हूँ मैं 

बिखरा पड़ा है तेरे ही घर में तेरा वजूद 
बेकार महफ़िलों में तुझे ढूँढता हूँ मैं 


मैं ख़ुदकशी के जुर्म का करता हूँ ऐतराफ़ 
अपने बदन की क़ब्र में कब से गड़ा हूँ मैं 

किस-किसका नाम लाऊँ ज़बाँ पर कि तेरे साथ 
हर रोज़ एक शख़्स नया देखता हूँ मैं 

ना जाने किस अदा से लिया तूने मेरा नाम 
दुनिया समझ रही है के सब कुछ तेरा हूँ मैं 

ले मेरे तजुर्बों से सबक ऐ मेरे रक़ीब 
दो चार साल उम्र में तुझसे बड़ा हूँ मैं 

जागा हुआ ज़मीर वो आईना है 
सोने से पहले रोज़ जिसे देखता हूँ मैं

2.
ख़ुशबुओं की तरह जो बिखर जाएगा
अक़्स उसका दिलों में उतर जाएगा

दर्द से रोज़ करते रहो गुफ़्तगू
ज़ख़्म गहरा भी हो तो वो भर जाएगा

वो न ख़ंजर से होगा न तलवार से
तीर नज़रों का जो काम कर जाएगा

हसरतों के चराग़ों को रौशन करो
दिल तुम्हारा उजालों से भर जाएगा

वक़्त कैसा भी हो वो ठहरता नहीं
जो बुरा वक़्त है वो गुज़र जाएगा

धड़कनों की तरह चल रही है घड़ी
एक दिन वक़्त यानी ठहर जाएगा

ज़िन्दगी से मुहब्बत बहुत हो गई
जाने कब दिल से मरने का डर जाएगा


3.
तुम पूछो और मैं न बताऊँ ऐसे तो हालात नहीं
एक ज़रा सा दिल टूटा है और तो कोई बात नहीं

किसको ख़बर थी साँवले बादल बिन बरसे उड़ जाते हैं
सावन आया लेकिन अपनी क़िस्मत में बरसात नहीं

माना जीवन में औरत एक बार मोहब्बत करती है
लेकिन मुझको ये तो बता दे क्या तू औरत ज़ात नहीं

टूट गया जब दिल तो फिर साँसों का नग़मा क्या माने
गूँज रही है क्यों शहनाई जब कोई बारात नहीं

ख़त्म हुआ मेरा अफ़साना अब ये आँसू पोंछ भी लो
जिसमें कोई तारा चमके आज की रात वो रात नहीं

मेरे ग़मग़ीं होने पर एहबाब हैं यूँ हैरान ‘क़तील’
जैसे मैं पत्थर हूँ मेरे सीने में जज़्बात नहीं

बशीर बद्र (5 )

1.
सर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जाएगा । 
इतना मत चाहो उसे, वो बेवफ़ा हो जाएगा ।

हम भी दरिया हैं, हमें अपना हुनर मालूम है, 
जिस तरफ़ भी चल पड़ेंगे, रास्ता हो जाएगा । 

कितना सच्चाई से, मुझसे ज़िंदगी ने कह दिया, 
तू नहीं मेरा तो कोई, दूसरा हो जाएगा । 

मैं ख़ुदा का नाम लेकर, पी रहा हूँ दोस्तो, 
ज़हर भी इसमें अगर होगा, दवा हो जाएगा । 

सब उसी के हैं, हवा, ख़ुश्बू, ज़मीनो-आस्माँ, 
मैं जहाँ भी जाऊँगा, उसको पता हो जाएगा ।



2 .
सौ ख़ुलूस बातों में सब करम ख़यालों में
बस ज़रा वफ़ा कम है तेरे शहर वालों में

पहली बार नज़रों ने चाँद बोलते देखा
हम जवाब क्या देते खो गये सवालों में

रात तेरी यादों ने दिल को इस तरह छेड़ा
जैसे कोई चुटकी ले नर्म नर्म गालों में

मेरी आँख के तारे अब न देख पाओगे
रात के मुसाफ़िर थे खो गये उजालों में


3.
वही ताज है वही तख़्त है वही ज़हर है वही जाम है
ये वही ख़ुदा की ज़मीन है ये वही बुतों का निज़ाम है

बड़े शौक़ से मेरा घर जला कोई आँच न तुझपे आयेगी
ये ज़ुबाँ किसी ने ख़रीद ली ये क़लम किसी का ग़ुलाम है

मैं ये मानता हूँ मेरे दिये तेरी आँधियोँ ने बुझा दिये
मगर इक जुगनू हवाओं में अभी रौशनी का इमाम है


4.
भीगी हुई आँखों का ये मंज़र न मिलेगा
घर छोड़ के मत जाओ कहीं घर न मिलेगा

फिर याद बहुत आयेगी ज़ुल्फ़ों की घनी शाम
जब धूप में साया कोई सर पर न मिलेगा

आँसू को कभी ओस का क़तरा न समझना
ऐसा तुम्हें चाहत का समुंदर न मिलेगा

इस ख़्वाब के माहौल में बे-ख़्वाब हैं आँखें
बाज़ार में ऐसा कोई ज़ेवर न मिलेगा

ये सोच लो अब आख़िरी साया है मुहब्बत
इस दर से उठोगे तो कोई दर न मिलेगा


5.
आ चाँदनी भी मेरी तरह जाग रही है
पलकों पे सितारों को लिये रात खड़ी है

ये बात कि सूरत के भले दिल के बुरे हों
अल्लाह करे झूठ हो बहुतों से सुनी है

वो माथे का मतला हो कि होंठों के दो मिसरे
बचपन की ग़ज़ल ही मेरी महबूब रही है

ग़ज़लों ने वहीं ज़ुल्फ़ों के फैला दिये साये
जिन राहों पे देखा है बहुत धूप कड़ी है

हम दिल्ली भी हो आये हैं लाहौर भी घूमे
ऐ यार मगर तेरी गली तेरी गली है

Monday, 16 September 2013

साहिर लुधियानवी (3)

1.
अब न इन ऊंचे मकानों में क़दम रक्खूंगा
मैंने इक बार ये पहले भी क़सम खाई थी
अपनी नादार मोहब्बत की शिकस्तों के तुफ़ैल
ज़िन्दगी पहले भी शरमाई थी, झुंझलाई थी

और ये अहद किया था कि ब-ई-हाले-तबाह
अब कभी प्यार भरे गीत नहीं गाऊंगा
किसी चिलमन ने पुकारा भी तो बढ़ जाऊँगा
कोई दरवाज़ा खुला भी तो पलट आऊंगा

फिर तिरे कांपते होंटों की फ़ुन्सूकार हंसी
जाल बुनने लगी, बुनती रही, बुनती ही रही
मैं खिंचा तुझसे, मगर तू मिरी राहों के लिए
फूल चुनती रही, चुनती रही, चुनती ही रही

बर्फ़ बरसाई मिरे ज़ेहनो-तसव्वुर ने मगर
दिल में इक शोला-ए-बेनाम-सा लहरा ही गया
तेरी चुपचाप निगाहों को सुलगते पाकर
मेरी बेज़ार तबीयत को भी प्यार आ ही गया

अपनी बदली हुई नज़रों के तकाज़े न छुपा
मैं इस अंदाज़ का मफ़हूम समझ सकता हूँ
तेरे ज़रकार दरीचों को बुलंदी की क़सम
अपने इकदाम का मकसूम[ समझ सकता हूँ

अब न इन ऊँचे मकानों में क़दम रक्खूंगा
मैंने इक बार ये पहले भी क़सम खाई थी
इसी सर्माया-ओ-इफ़लास के दोराहे पर
ज़िन्दगी पहले भी शरमाई थी, झुंझलाई थी
ब-ई-हाले-तबाह -यों तबाह-हाल होने पर भी //
 फ़ुन्सूकार=जादू भरी  //ज़ेहनो-तसव्वुर ने =मस्तिष्क तथा कल्पना ने// मफ़हूम =अर्थ 
ज़रकार =स्वर्णिम // मकसूम[ =कदम बढ़ाने का भाग्य(परिणाम) //
 सर्माया-ओ-इफ़लास के =धन तथा निर्धनता के
2.
मैं ज़िन्दा हूँ ये मुश्तहर कीजिए

मेरे क़ातिलों को ख़बर कीजिए

ज़मीं सख्त है, आसमाँ दूर है

बसर हो सके तो बसर कीजिए


सितम के बहुत से हैं रद्दे-अमल

ज़रूरी नहीं चश्म तर कीजिए


वही ज़ुल्म बारे-दिगर है तो फिर

वही ज़ुर्म बारे-दिगर कीजिए


क़फ़स तोड़ना बाद की बात है

अभी ख़्वाहिशे-बालो-पर कीजिए




3. 
ज़ुल्म फिर ज़ुल्म है, बढ़ता है तो मिट जाता है
ख़ून फिर ख़ून है टपकेगा तो जम जाएगा
तुमने जिस ख़ून को मक़्तल में दबाना चाहा
आज वह कूचा-ओ-बाज़ार में आ निकला है
कहीं शोला, कहीं नारा, कहीं पत्थर बनकर
ख़ून चलता है तो रूकता नहीं संगीनों से
सर उठाता है तो दबता नहीं आईनों से

जिस्म की मौत कोई मौत नहीं होती है
जिस्म मिट जाने से इन्सान नहीं मर जाते
धड़कनें रूकने से अरमान नहीं मर जाते
साँस थम जाने से ऐलान नहीं मर जाते
होंठ जम जाने से फ़रमान नहीं मर जाते
जिस्म की मौत कोई मौत नहीं होती

ख़ून अपना हो या पराया हो
नस्ले आदम का ख़ून है आख़िर
जंग मशरिक में हो कि मग़रिब में
अमने आलम का ख़ून है आख़िर

बम घरों पर गिरें कि सरहद पर
रूहे- तामीर ज़ख़्म खाती है
खेत अपने जलें या औरों के
ज़ीस्त फ़ाक़ों से तिलमिलाती है

जंग तो ख़ुद हीं एक मअसला है
जंग क्या मअसलों का हल देगी
आग और खून आज बख़्शेगी
भूख और अहतयाज कल देगी


बरतरी के सुबूत की ख़ातिर
खूँ बहाना हीं क्या जरूरी है
घर की तारीकियाँ मिटाने को 
घर जलाना हीं क्या जरूरी है

टैंक आगे बढें कि पीछे हटें
कोख धरती की बाँझ होती है
फ़तह का जश्न हो कि हार का सोग
जिंदगी मय्यतों पे रोती है

इसलिए ऐ शरीफ इंसानों
जंग टलती रहे तो बेहतर है
आप और हम सभी के आँगन में
शमा जलती रहे तो बेहतर है।

Sunday, 15 September 2013

गौहर रजा (2 )


दुआ 

काश  यह बेटियां बिगड़ जाये 
इतना बिगड़े के ये  बिफर जाएँ  
उन पे बिफरे जो तीर-ओ-तेशा लिए  
राह में बुन रहे हैं  दार  ओ रसन  
और हर आज़माइश - ए -दार -ओ - रसन  
इनको रस्ते  की धूल लगने लगे  

काश ऐसा हो अपने चेहरे से  
आंचलो को झटक के सब से कहें  
ज़ुल्म की हद जो तुम ने खेंची  थी  
उस को पीछे कभी का छोड़ चुके  

काश चेहरे से खौफ का ये हिजाब  
यक-ब-यक इस तरह पिघल जाये  
तमतमा उट्ठे  ये  रुख़ ए रोशन  
दिल का हर तार टूटने सा लगे  

काश ऐसा हो सहमी आँखों में  
कहर की बिजलियाँ कड़क  उट्ठें 
और मांगे ये  सारी दुनिया से 
एक-एक कर के हर गुनाह का हिसाब 
वोह गुनाह जो कभी किये ही नहीं 
और उनका भी जो ज़रूरी है  

काश ऐसा हो मेरे दिल की कसक  
इनके नाज़ुक लबों से फूट पड़े 

2.

गौहर रज़ा की नज़्म-
जलियांवाला बाग़

"कभी तो स्वर्ग झुक के पूछता ही होगा ए फलक.
ये कैसी सरज़मीन है, ये कौन लोग थे यहाँ,
जो जिंदगी की बाजियों को जीतने की चाह में,
लुटा रहे थे बेझिझक, लहू की सब अशर्फियाँ.
यहाँ लहू, लहू के रंग में, नया था किस तरह,
न सब्ज़ था, न केसरी, न था सलीब का निशां,
न राम नाम था यहाँ, न थी खुदा की रहमतें,
न जन्नतों की चाह थी, न दोजखों का खौफ था,
न स्वर्ग इनकी मंजिलें, न नर्क का सवाल था,
मसीह-ओ-गौतम-ओ-रसूल, कृष्ण, कोई भी नहीं,
कि जिसके नाम जाम पी के मस्त हो गए हों सब,
ये कौन सी शराब थी, कि जिसका ये सुरूर था,
ये किस तरह की मस्तियों में इसकदर गुरुर था,
ये किस तरह यकीन हो, कि एक मुश्त-ए-खाक है,
जो जिंदगी की मांग में, बिखर गयी सिन्दूर सी,
इन्हें यकीन था कि इनके दम से ही बहार है,
ये कह रहे थे, हम से ही बहार पर निखार है,
बहार पर ये बंदिशें इन्हें क़ुबूल क्यों नहीं,
इन्हें क़ुबूल क्यों नहीं ये गैर की हुकूमतें,
ये क्या हुआ कि यकबयक सब खामोश हो गए,
यहाँ पे ओस क्यों पड़ी, ये धूल तप गयी है क्यों,
वो जिससे फूल खिल उठे थे, ज़ख्म भर गया है क्यों,
मुझे यकीन है कि फिर यहीं इसी मक़ाम से,
उठेगा हश्र, जी उठेंगे सारे नर्म ख्वाब फिर,
बराबरी का सब जुनूं सिमटके फिर से आएगा,
बिखेर देगी जिंदगी की हीर अपनी ज़ुल्फ़ को,
यहीं से उठेगी सदा कि खुद पे तू यकीन कर,
यहीं से ज़ुल्म की कड़ी पे पहला वार आएगा..."--- गौहर रज़ा