Tuesday 12 January 2016

" राजीव चतुर्वेदी "


"खुदा
यह खून के धब्बे जो बिखरे हैं तेरे दामन पे ,
तू मुंसिफ हो नहीं सकता
तू मुद्दयी बन नहीं पाया
मेरे मुकद्दर में तू मुलजिम है 

और मैं मुद्दई ...हूर के नूर से रंगीन मुलजिम रक्स करते हैं
और मैं तेरे ही गुनाहों से ग़मगीन
जिस दिन तू खुद ही धो सके यह खून के धब्बे अपने दामन से 

चला आना
मैं खुद ब खुद तुझको खुदा कहने लगूंगा
मैं तेरा इंतज़ार करता हूँ क़यामत तक
तब तक मैं तुझे बर्खास्त करता हूँ 
." ---- राजीव चतुर्वेदी
 
"ऐ खुदा
अगर यह तेरी मर्जी से हुआ है
तो तू बहुत गन्दा है ...थू तुझ पर
और
अगर यह तेरी मर्जी से नहीं हुआ 

तो तू नाकारा
मैंने सोचा था तू रहमदिल है
तेरे बन्दे ही गंदे होंगे 

इबादत के नाम पर सियासत से रियासत बनाने वाले
मौलवी और इमाम की दूकान पर धंधे होंगे
अब तो तेरा रहम वहम ही निकला
अगर तू खुदा है तो लौटा दे मेरे बच्चों को
वरना अब चीख कर मैं कहता हूँ
तू या तो कातिल है या नाकारा
आज अपनी औलाद के साथ
अल्लाह तेरे अकीदे को
सुपुर्द ऐ ख़ाक मैं कर आया .
 " 
----- राजीव चतुर्वेदी


16. "तू जालिम है" --- कहूँगा मैं ...मुलाजिम मैं नहीं तेरा


"यह युद्ध
यह क़त्ल
यह भूख

यह जिस्म की हर किस्म बिकती हुयी बाज़ार में
बाज़ार में बेज़ार से हम सोचते हैं
मैं तो बिक रहा हूँ
तू खरीदार का है तो मेरा कहाँ से होगा ?
रहम का वहम अब मुझको नहीं
तू भगवान है , ईसा या अल्लाह
कौन है तू ?
अगर यह दुनियाँ तेरी है तो तू अपने पास रखले
अगर यह जिन्दगी तेरी है तो इसको भी तू अपने पास रखले
तू जालिम है ...तू जालिम है ... तू जालिम है
"तू जालिम है" --- कहूँगा मैं
मुलाजिम मैं नहीं तेरा .
"
 ----- राजीव चतुर्वेदी


15. आँसुओ मजहब बताओ

"आँसुओ मजहब बताओ
कुछ केशरिया से आँसू हैं
तो कुछ आँसू हरे हरे से हैं
कुछ वामपंथ के आँसू सुर्ख लहू जैसे
कुछ पूंजीवादी आँसू हैं, कुछ अवसरवादी आँसू है 
यहाँ हर हड़ताली की आँखों में घड़ियाली से आंसू हैं
कुछ सरकारी आँसू हैं
विछोहों की विवशता से बिलखती आँख के आँसू
बहू की मौत पर पाखण्ड करती सास के आँसू
वास्तविक आँसू आँख में अक्सर चुपचाप रहते हैं
मौत विश्वास की हो , विवशता की या कि रिश्ते की
छलक जाते हैं कुछ आँसू भावना के भंगुर भूगोल को ले कर
खून का ग्रुप तो पता चल जाएगा
पर ख्वाब का ...ख्वाहिश का ग्रुप भी खोज लो
आँसुओं का ग्रुप पता हो जाएगा
ताप में ...संताप में जब भावना भाप सी उड़ने लगे
पर कहीं ठण्डक सी पा कर बूँद सी गिरने लगे
आँख की बस उस नमीं में आंसुओं का अक्स है 
आँसुओ मजहब बताओ
कुछ केशरिया से आँसू हैं
तो कुछ आँसू हरे भी हैं
यहाँ हर हड़ताली की आँखों में घड़ियाली से आंसू हैं
कुछ सरकारी आँसू हैं
विछोहों की विवशता से बिलखती आँख के आँसू
बहू की मौत पर पाखण्ड करती सास के आँसू.
 "

------ राजीव चतुर्वेदी


14. भूख की प्रतिद्वन्द्विता को सभ्यता कहते हैं लोग

"दरिंदे और परिंदे के बीच
एक दाना
जो दया का दिख रहा था
पर दाँव निकला
सभ्यता के बीच में फैला हुआ विस्तार है 

वही एक जाल है
भूख उसकी हो या मेरी
भूख का सहअस्तित्व हो सकता ही नहीं है
भूख की प्रतिद्वन्द्विता को सभ्यता कहते हैं लोग.
 "
-------- राजीव चतुर्वेदी


13. ऐ खुदा ... मैं तुझे बर्खास्त करता हूँ

"खुदा
यह खून के धब्बे जो बिखरे हैं तेरे दामन पे ,
तू मुंसिफ हो नहीं सकता
तू मुद्दयी बन नहीं पाया
मेरे मुकद्दर में तू मुलजिम है 

और मैं मुद्दई ...हूर के नूर से रंगीन मुलजिम रक्स करते हैं
और मैं तेरे ही गुनाहों से ग़मगीन
जिस दिन तू खुद ही धो सके यह खून के धब्बे अपने दामन से 

चला आना
मैं खुद ब खुद तुझको खुदा कहने लगूंगा
मैं तेरा इंतज़ार करता हूँ क़यामत तक
तब तक मैं तुझे बर्खास्त करता हूँ 
." ---- राजीव चतुर्वेदी
 
"ऐ खुदा
अगर यह तेरी मर्जी से हुआ है
तो तू बहुत गन्दा है ...थू तुझ पर
और
अगर यह तेरी मर्जी से नहीं हुआ 

तो तू नाकारा
मैंने सोचा था तू रहमदिल है
तेरे बन्दे ही गंदे होंगे 

इबादत के नाम पर सियासत से रियासत बनाने वाले
मौलवी और इमाम की दूकान पर धंधे होंगे
अब तो तेरा रहम वहम ही निकला
अगर तू खुदा है तो लौटा दे मेरे बच्चों को
वरना अब चीख कर मैं कहता हूँ
तू या तो कातिल है या नाकारा
आज अपनी औलाद के साथ
अल्लाह तेरे अकीदे को
सुपुर्द ऐ ख़ाक मैं कर आया .
 " 
----- राजीव चतुर्वेदी


12. कहानी एक थी किरदार जुदा थे अपने

"कहानी एक थी किरदार जुदा थे अपने
स्वार्थ में बँट चुके खुदगर्ज खुदा थे अपने
खुद को रिश्तों और फरिश्तों में हमने बाँट लिया
हर्फ़ तो एक पर ज़र्फ़ जुदा थे अपने
यह इत्तफाक था कि हम एक ही रास्ते के राहगीर हुए

यह हकीकत थी कि सराय एक थी स्वभाव जुदा थे अपने
प्यार रिश्तों में अहम था पर वहम ही निकला
मुहब्बत की इबारत में तिजारत झाँकती थी
अंदाज़ एक सा पर अहसास जुदा थे अपने
जब जरूरत पड़ी तो जज्वात भी हमने बाँट लिए
जरिया और नजरिया जुदा होता तो चल भी जाता
समंदर एक था साहिल ही जुदा थे अपने
तू भी एक रोज कश्ती सी कहीं डूब गयी
मैं भी लहूलुहान सूरज सा समंदर में हर शाम डूबता ही रहा
कहानी एक अंजाम जुदा थे अपने ."

------- राजीव चतुर्वेदी


11. लड़कियाँ पागल होती हैं

"लड़कियाँ पागल होती हैं
बचपन में लड़कियाँ अपना बचपना भूल अपने भाइयों को माँ की तरह दुलराती हैं
बचपन में लड़कियाँ खुद अच्छी चीजें नहीं खाती अपने भाइयों को खिलाती हैं
बचपन में लड़कियाँ खिलोनों के लिए जिद नहीं करतीं
अपने भाइयों को खिलौने दिलाती हैं 
क्योंकि लड़कियाँ पागल होती हैं 


"प्यार करना सबसे बड़ा गुनाह है" --- यह समझाया जाता है लड़कियों को बार-बार
इसलिए प्यार करना चाह कर भी किसी लड़के से प्यार नहीं करतीं
क्योंकि लड़कियाँ पागल होती हैं
फिर एक दिन लड़कियाँ न चाह कर भी प्यार कर लेती हैं
और फिर उससे पागलपन की हद तक प्यार करती हैं
क्योंकि लड़कियाँ पागल होती हैं 


लड़कियाँ जिससे कभी प्यार नहीं करतीं
उससे भी घरवालों के शादी कर देने पर प्यार करने लगती हैं
क्योंकि लड़कियाँ पागल होती हैं 

लड़कियाँ एक दिन माँ बनती हैं
फिर अपने बच्चों से पागलपन की हद तक प्यार करती हैं
एक-एक कर उनको सभी छोड़-छोड़ कर जाते रहते हैं
माता -पिता -भाई बताते हैं तुम परायेघर की हो
लड़कियाँ फिर भी उन्हें अपना मानती हैं
क्योंकि लड़कियाँ पागल होती हैं 

फिर ससुराल में बताया जाता है कि तुम पराये घर की हो
फिर भी वह ससुराल को अपना ही घर मान लेती हैं
क्योंकि लड़कियाँ पागल होती हैं 


लड़कियों को तो बचपन में ही बताया गया था
कि प्यार इस दुनियाँ का सबसे बड़ा गुनाह है
फिर भी लड़कियाँ प्यार करती हैं
बेटी बहन प्रेमिका पत्नी नानी और दादी के बदलते रूपों में भी प्यार करती हैं
क्योंकि लड़कियाँ पागल होती हैं

मनोवैज्ञानिक विद्वान् भावनाओं की बाढ़ को पागलपन कहते हैं
हानि -लाभ तो भौतिक घटना हैं
लड़कियाँ भावनाओं की पटरी पर दौड़ती हैं
क्योंकि लड़कियाँ पागल होती हैं
अंत में लड़कियाँ पछताती हैं कि उन्होंने प्यार क्यों किया
क्योंकि लड़कियाँ पागल होती हैं . 
"
 ---- राजीव चतुर्वेदी


10. निशा निमंत्रण के निनाद से हर सूरज के शंखनाद तक

"निशा निमंत्रण के निनाद से
हर सूरज के शंखनाद तक
रणभेरी के राग बहुत हैं
युद्धभूमि में खड़े हुए यह तो बतलाओ कौन कहाँ है ?
दूर दिलों की दीवारों से तुम भी देखो वहां झाँक कर
वहां हाशिये पर वह बस्ती राशनकार्ड हाथ में लेकर हांफ रही है
और भविष्य के अनुमानों से माँ की ममता काँप रही है
सिद्ध, गिद्ध और बुद्धि सभी की चोंच बहुत पैनी हैं
घमासान से घायल बैठे यहाँ होंसले,... वहां घोंसले
नंगे पाँव राजपथ पर जो रथ के पीछे दौड़ रहा है
वह रखवाला राष्ट्रधर्म का राग द्वेष की इस बस्ती में बहक रहा है
और दूर उन महलों का आँगन तोड़ी हुई कलियों के कारण महक रहा है
निशा निमंत्रण के निनाद से
हर सूरज के शंखनाद तक
रणभेरी के राग बहुत हैं
युद्धभूमि में खड़े हुए यह तो बतलाओ कौन कहाँ है ?"-
-----राजीव चतुर्वेदी

9. प्यार मेरे यार मैं भी करना चाहता था


"प्यार मेरे यार मैं भी करना चाहता था
मैं तुमसे मिलना चाहता था
पर किसी पार्क में नहीं


मैं चाहता था राजनीति की रणभूमि में हम मिलते
पर तुम्हें राजनीति पसंद नहीं
मैं चाहता था किसी शोध में हम मिलते
पर तुम्हें शोध पसंद नहीं
मैं कल्पना करता था कि
मैं रिक्शा चला रहा हूँ
और तुम मुट्ठी में बंद
अपने पिता की दौलत का एक नन्हा सा टुकड़ा लिए
घर से निकलती हो कॉलेज जाने को
मुझसे तय करती हो जिंदगी की दूरी के हिसाब से भाड़ा
पर तुमको मेहनत से कमाने वाले लोग पसंद नहीं
जिंदगी में मेहनत की गंध पर तुम मंहगा डियो स्प्रे करती हो


मैं तुमसे मिलना चाहता था
किसी चिंतन शिविर गोष्ठी या सेमीनार में
जहाँ राष्ट्र की दशा और दिशा पर चिंता हो
पर तुम्हें यह पसंद नहीं


मैं तुमसे मिलना चाहता था युद्ध के मैदान पर घायल लौट कर
मुझे अच्छा लगता कि
युद्ध से शेष बचा मैं जब लौटूँ
तो तुम कमसे कम अपना रूमाल मेरे घाव पर रख दोगी
मैं भरना चाहता था तुम्हारी माँग में अपने लहू के रँग
पर तुम्हें यह पसंद नहीं


मैं जानता हूँ तुम भी मुझे प्यार करती हो
पर अपनी माँग में
दूसरों का रँग मेरे लिए भरना चाहती हो
पर मुझे यह पसंद नहीं
मैं अपनी ख्वाहिशें अपने ख्वाब अपने ही खून के रंग से भरूंगा
और उसके लिए ताजिंदगी तिल तिल मरूँगा
विडम्बना यह कि
तुम मेरे साथ जीने आयी हो
और
मैं तुम्हारे साथ मरने आया हूँ .
"
---- राजीव चतुर्वेदी


8. उस चाय के प्याले में ...

" उस चाय के प्याले में शामिल थी
मुस्कराहट के लिबास में शाम की उदासी
डूबते सूरज की शेष बची आश
एक गुमशुदा सा अहसास ...हमारे आस पास ...बेहद ख़ास
धीरे से दबे पाँव आ कर हमारे बीच बैठा संकोची सा चंदा
चाय के कप से उठती रिश्तों की ऊष्मा की भाप
थोड़ी आशा, थोडा प्राश्चित, थोड़ी उदासी,
कुछ शेष बचे सपने

कुछ अवशेष से अपने
और एक लावारिस सा अहसास ...बेवजह पर बेहद ख़ास
उस कप में बहुत कुछ था जो रिश्तों में पी लिया हमने
उस कप में बहुत कुछ था जो रिश्तों में जी लिया हमने
उस चाय के प्याले में जो खालीपन है वह अपना है
जो भाप बन कर उड़ गया वह सपना है
चाय का खाली प्याला अब रिश्ते की तरह ठंडा है
छलक जाते हैं जो अहसास वह धब्बे से दिखते हैं
उस कप में बहुत कुछ था जो रिश्तों में पी लिया हमने
उस कप में बहुत कुछ था जो रिश्तों में जी लिया हमने .
"
 ---- राजीव चतुर्वेदी


7. यह गिरे हुए लोगों के ही समाचार प्रायः क्यों होते हैं ?

"आंधी आयी
आंधी से पेड़ गिरा ...पेड़ से आम गिरे
कहीं समाचार नहीं था
पेड़ से घोंसला गिरा
घोंसले से होंसला गिरा

उल्का गिरी ...जहाज गिरा ...सेंसेक्स गिरा
कल्पना चावला गिरी
सरकार गिरी
संसद में गांधी का चित्र गिरा
समाज का चरित्र गिरा
बोर वैल में बच्चा गिरा
बस खाई में गिरी
बिल्डिंग गिरी ...पुल गिरा
आसमान से पानी गिरा ...ओले गिरे ...युद्ध में शोले गिरे
ऐक्ट्रेस रेम्प पर गिरी ...बिजली कैम्प पर गिरी
अरे यार !
यह गिरे हुए लोगों के ही समाचार प्रायः क्यों होते हैं ?"

----- राजीव चतुर्वेदी


6. मैं शंकर तो नहीं था ...जहर पीता तो पीता कितना ?

"विषधरों की बस्तियों में मैं जीता तो जीता कितना ,
मैं शंकर तो नहीं था ...जहर पीता तो पीता कितना ?


समुद्र मंथनों का मेहनताना मैंने सुरा और सुन्दरी माँगी नहीं थी
सुख तेरे थे, शहर तेरा था, जज्वात मेरे ,जहर मेरा था 
बिजलियों की चौंध में जो अँधेरा था वह घर मेरा था
लक्ष्मी की हूक तेरी थी, भूख मेरी थी
एक बंटवारा था न्यारा जिसमें हर सुख तेरा दुःख मेरा था 


तुम्हारी कोशिशों के बाद भी मैं शव नहीं था इस लिए शिव कहा तुमने
समय के साथ बढ़ता वंश तेरा साँप सा हर दंश मेरा था 


जब भी तुम कभी मेरे मंदिर को आते हो
जानता हूँ तुम जहर भर भर के लाते हो
मैं नहीं मंदिर के अन्दर, जी रहा हूँ तेरे अन्दर घुट घुट के
सोचता हूँ इस शहर में मैं कब तक जी सकूंगा ?
इस जहर को कब तलक मैं पी सकूंगा ? 


चलो जाओ यहाँ से जहर फैला के फिर कभी मंदिर के अन्दर नहीं आना
मरीचिका से मोहब्बत है तुम्हें तो सत्य से फिर वास्ता कैसा ?
जहर ले कर चले हो तो मंदिरों का रास्ता कैसा ?


विषधरों की बस्तियों में मैं जीता तो जीता कितना ,
मैं शंकर तो नहीं था ...जहर पीता तो पीता कितना ?
"
 ----- राजीव चतुर्वेदी

5. मेरी शहादत दर्ज है रोशनी की हर इबारत में

"सदी लंबी
नदी गहरी और लहरें भी अराजक हैं ,
पतवार का हर वार कहता है
किनारे किनारा कर गए
कहीं गहरे में डूबूँगा
मछलियों की आँख कहती है
ये भूखी हैं
इन्हें सुन्दर मैं लगता हूँ

ऊब कर डूबूँ
इससे बेहतर है कि डूबूँ तैर कर
नदी के उस ओर सदी के छोर पर
बहतेी हुए पानी पर
डूबती यह जिंदगी उनवान लिखती है
शाम को जिस नदी के पानी में बहा कर
दिए बोये थे तुम्हारे प्यार ने
उस नदी में नहा कर
सुबह सूरज उग रहा है
मेरी शहादत दर्ज है रोशनी की हर इबारत में .
"

------ राजीव चतुर्वेद




4. और अबोधों की ये भीड़ ...



"सौन्दर्य बोध के सहमे सवाल
और अबोधों की ये भीड़
तुम बताओ क्या कहूं ? ... किस से कहूँ सपने अधूरे से ?


सुना है शब्द रहते थे यहाँ पर 
और उन शब्दों में पूरा एक शहर बसता था
दिन में कोलाहल सा था
कहकशाँ था शाम को
चांदनी चर्चित सी थी
मेरे हाथों का तकिया सा लगा कर रात जगती थी
सुबह सकपकाई सी सूरज की उंगली को थामे छोटे बच्चे सी
मेरे आँगन में आती थी
नादानियां शब्दों को ओढ़े फक्र करती थीं 

वही अब शब्द सारे हैं
जो रहस्यों को गुनगुनाते सूनी इमारत से खामोश बैठे हैं
जिन शब्दों में सारा संसार रहता था वहीं अब सन्नाटा सिमटा है
अब शब्द बीरान से हैं ...खोखले खामोश से हैं
खोखले शब्द खनकते हैं बहुत 


सौन्दर्य बोध के सहमे सवाल
और अबोधों की ये भीड़
तुम बताओ क्या कहूं ? ... किस से कहूँ सपने अधूरे से ?"
 ----- राजीव चतुर्वेदी


3.कहानी एक थी किरदार जुदा थे अपने

"कहानी एक थी किरदार जुदा थे अपने
स्वार्थ में बँट चुके खुदगर्ज खुदा थे अपने
खुद को रिश्तों और फरिश्तों में हमने बाँट लिया
हर्फ़ तो एक पर ज़र्फ़ जुदा थे अपने
यह इत्तफाक था कि हम एक ही रास्ते के राहगीर हुए

यह हकीकत थी कि सराय एक थी स्वभाव जुदा थे अपने
प्यार रिश्तों में अहम था पर वहम ही निकला
मुहब्बत की इबारत में तिजारत झाँकती थी
अंदाज़ एक सा पर अहसास जुदा थे अपने
जब जरूरत पड़ी तो जज्वात भी हमने बाँट लिए
जरिया और नजरिया जुदा होता तो चल भी जाता
समंदर एक था साहिल ही जुदा थे अपने
तू भी एक रोज कश्ती सी कहीं डूब गयी
मैं भी लहूलुहान सूरज सा समंदर में हर शाम डूबता ही रहा
कहानी एक अंजाम जुदा थे अपने ."

------- राजीव चतुर्वेदी

 2 .मैं माचिश हूँ मेरे मित्र

"मैं माचिश हूँ मेरे मित्र
तुम अगर ज्वलनशील होगे
तो हम मिल कर दहकेंगे
तुम अगर अगरबत्ती होगे
तो हम मिल कर महकेंगे

तुम अगर पानी होगे
तो तुमसे मिल कर मैं बुझ जाऊंगा
मुझे रगड़ो वक्त के शिलालेखों पर
मैं जलना चाहता हूँ
यह हो सकता है कि
तुम्हारे स्पर्श से कोई संगीत निकले
पर मैं तुम्हें छूना नहीं चाहता
मैं जलना चाहता हूँ अपनी आग में
आने वाली पीढ़ियों के उजाले के लिए
अपनी देह पर स्पर्श का संगीत सुनते
शायद तुम सोना चाहते हो
मैं दहकता हूँ
महकता हूँ
बहकता हूँ
पर आग लगाता हूँ
लोरी नहीं गाता
.
" ----- राजीव चतुर्वेदी



1. एक अहसास चीख कर चुप होता है

" एक अहसास चीख कर चुप होता है
एक उपहास दिल के दालानों में पसर कर बैठा
मैं जानता हूँ
जिन्दगी की इस धूप में पेड़ की परछाईं सी जो छाया है
वह तुम्हारी हमशक्ल सी लगती है मुझे 

शायद तुम्हीं हो
ओस से गिरते हमारे अहसास दिन में सूख जाते हैं
चांदनी क्यों चीखती थी रात को ?
सूरज सबेरे ही सवालों से घिरा यह पूछता है
सुना है वेदना अखबार में बिकने लगी है
मैं अकेला और तुम तनहा से तारों में कहीं अब दूर बैठे हो
हो सके तो दीवाली मनाने को मेरे पास चले आना
मैं तारों में खोज लेता हूँ तुम्हें पर बात बाकी है
इन हवाओं की गुजारिश प्यार करती सी गुजरती है
मैं अभी ठहरा नहीं हूँ
इस सफ़र में जब कभी ठहरूंगा तो बता दूंगा
प्यार, मौसम, यह हवाएं, चांदनी, वह धूप सूरज की,
पेड़ की छाया, काया हमारी और यह माया यहाँ रुकती नहीं है
रास्ते में तुम यहाँ अब कब मिलोगे ? -- प्रश्न यह पूछो नहीं
आभाष को अहसास कर लेना ." 
----- राजीव चतुर्वेदी

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